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________________ * 'अत्र योऽसौ स्कन्धानां भेदको भणितः स कार्यपरमाणुरुच्यते यस्तु कारकः तेषां स कारणपरमाणुरिति कार्यकारणभेदेन द्विधा परमाणुर्भवति।२९७ - यहाँ जिस परमाणु को स्कन्धों का भेदक कहा गया है उसे कार्यपरमाणु कहते है, और जिसको स्कन्धों का कारक कहा गया है उसे कारणपरमाणु कहते है। इस प्रकार कार्य परमाणु और कारणपरमाणु के भेद से परमाणु के दो भेद है। कहा भी गया है कि स्कन्ध को भेदनेवाला प्रथम कार्य परमाणु है, स्कन्धों को उत्पन्न करनेवाला दूसरा कारण परमाणु है। - तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में इसी बात को स्पष्ट की गई है तथा टीकाकार सिद्धसेनगणि ने भी स्वीकार किया है तथा भेदादणु' इस सूत्र की टीका में लिखा है कि द्रव्यनय और पर्यायनय से कोई विरोध नहीं है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी 'भेदादणु' सूत्र की टीका में यही उल्लिखित किया है। भेदादेव स्कन्धविचटनरुपात् परमाणुरुत्पद्यते, न संघातात् नापि संघातभेदात्, परमाणुत्वायोगादिति।२९८ दो प्रकार के स्कन्धों में से जो चाक्षुष है वे भेद और संघात दोनों से निष्पन्न होते है। शेष जो अचाक्षुष है वे पूर्वोक्त तीनों ही कारणों से उत्पन्न होते है। पुद्गलास्तिकाय का भगवति में इस प्रकार स्वरूप निर्दिष्ट किया है। हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय में पाँच रंग, पाँच रस, आठ स्पर्श, दो गंध, रूपी, अजीव, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य है। संक्षेप में उसके पाँच प्रकार है। जैसे कि (1) द्रव्य की अपेक्षा (2) क्षेत्र की अपेक्षा (3) काल की अपेक्षा (4) भाव की अपेक्षा (5) गुण की अपेक्षा। (1) द्रव्य की अपेक्षा - पुद्गलास्तिकाय अनंत द्रव्य है। (2) क्षेत्र की अपेक्षा - पुद्गलास्तिकाय लोक प्रमाण है। अर्थात् लोक में ही रहता है, बाहर नहीं। (3) काल की अपेक्षा - पुद्गलास्तिकाय कभी नहीं था ऐसा नहीं, कभी नहीं है ऐसा भी नहीं, कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा। अतः वह ध्रुव, निश्चित, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। (4) भाव की अपेक्षा - पुद्गलास्तिकाय वर्णवान्, गन्धमान्, रसवान् और स्पर्शवान् है। (5) गुण की अपेक्षा - पुद्गलास्तिकाय ग्रहण गुणवाला है। अर्थात् औदारिक आदि शरीर रूप से ग्रहण किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा भी ग्राह्य है। अथवा पूरण-गलन गुणवाला, मिलने बिछुडने का स्वभाववाला है।९९ स्थानांग में३००, लोकप्रकाश२०१ में भी ऐसा ही स्वरूप मिलता है। जिनेश्वर परमात्मा ने पुद्गलास्तिकाय के चार भेद बताये है - स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु। स्कन्ध के अनन्त भेद है। कोई दो प्रदेश का, कोई तीन प्रदेश का, कोई चार प्रदेश का इस प्रकार बढते ( आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व | द्वितीय अध्याय | 143
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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