________________ श्रीमति संगीता झा ने जैन साहित्य में हरिभद्र का योगदान के विषय पर। स्व. श्री नेमीचन्द शास्त्री ने हरिभद्र की प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन विषय पर शोध कार्य सम्पन्न कर उनेक साहित्य गांभीर्य को चित्रित किया है। साध्वी श्री दर्शनप्रभा ने “जैन दर्शन को आचार्य हरिभद्र का योगदान' विषय पर अपने शोध कार्य की इति श्री करके उनके दर्शन सम्बन्धी अवदानों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर लेख, शोधलेख भी समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं किन्तु मेरी जानकारी में अभी तक कोई ऐसा कार्य नहीं हुआ जो ऐसे मनस्वी एवं समदर्शी आचार्य के सम्पूर्ण दर्शन का अनुशीलन करा सके / इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मैं ज्ञान-यज्ञ के इस अनुष्ठान को करने की इच्छा में संकल्पित हुई हूँ। महत्त्व : किसी भी कार्य की निष्पत्ति यदि उस कार्य के हार्द को अभिव्यक्त तथा उस कार्य की जनोपयोगिता एवं पाठोपयोगिता के आधार पर उसका महत्त्व आकलित होता है। “आचार्य हरिभद्र का दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य” इस विषय का महत्त्व कुछ विशेष कारणों से अत्यधिक प्रतीत होता है। मेरे इस कार्य में जहाँ आचार्य हहिभद्र के समन्वय परक चिन्तन को उभारा जायेगा वही योग के सन्दर्भ में विभिन्न दार्शनिक चिन्तनों की समतुल्यता को प्रगट किया जायेगा, जिसके कारण आचार्य हरिभद्र का दर्शन नि:संदेह समस्त भारतीय चिन्तन परंपरा का आकर माना जा सकता है / मेरे इस कार्य का महत्त्व इसलिए भी होगा कि एक जैनाचार्य के रुप में प्रतिष्ठित होते हुए भी आचार्य हरिभद्र ने भारतीय संस्कृति की विशाल धरोहर सहृदयता एवं सामंजस्य का अपने दार्शनिक चिन्तन में बखूबी निर्वाह किया है। ___भगवान महावीर के आराधक होते हुए भी जो आचार्य यह कह सकते हो कि मेरा महावीर के प्रति कोई पक्षपात नहीं और कपिल, कणाद, अक्षपात के प्रति कोई वैर नहीं अपितु सत्य को कहने में जो सजग समर्पित रहता है मेरे लिए वही श्रेष्ठ है, ऐसे क्रान्तिकारी आचार्य के इस प्रकार के क्रान्तिकारी चिन्तन को अपने शोध कार्य में प्रतिष्ठित करने से उसका महत्त्व स्वतः उजागर होगा।