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________________ खंडन मंडन के कीचड में कमल बनकर, निर्मल रहकर निगमागमों के निरूपणों से अपने आपको निस्संग, निरासक्त, निर्ग्रन्थ नय का निरूपक बना दिया। उन्होंने अपने चिंतन में खण्डन को विकास रूप में विकसित किया, आक्षेप रूप में नहीं। जब दार्शनिक क्षेत्र मत-मतान्तरों से संत्रस्त हो रहा था। उन्मादित बना हुआ था और यह उन्माद उच्छृखलता का रूप ले रहा था। सभी दर्शनकार स्वमत को हठाग्रही कदाग्रही बनाकर अन्यमत पर कुठाराघात कर रहे थे। ऐसे समय में अपरिग्रही अणगार वर आचार्य हरिभद्र समवतरित हुए जिन्होंने समन्वयवाद की दृष्टि को उजागर कर सभी दर्शनों को समादृत करते हुए दर्शन की विकास भूमिका को प्रशस्त किया। _दर्शन की यह मूलभूत समस्या है, कि “अपना दर्शन चिंतन श्रेष्ठ है, और दूसरों का दर्शन एवं चिंतन निस्सार है" इसका आचार्य हरिभद्र के दर्शन में निस्सन्देह समाधान मिलता है। इसी समस्या को | केन्द्र में रखकर उसे यहाँ समाहित करने का प्रयास होगा तथा इस तथ्य की सिद्धि भी होगी कि दूसरों के मतों, तर्कों एवं विचारों को सम्मान देते हुए भी अपने प्रतिपाद्य को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उद्देश्य : महामनीषी आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित योगदृष्टि समुच्चय और योग शतक आदि ग्रन्थों का जब मैं अध्ययन कर रही थी उस समय मेरे मानस मेधा में अपूर्व जिज्ञासा जागृत हुई कि उन प्रोन्नत प्रज्ञावान् पुरुष द्वारा रचित साहित्य की गहराई तक आकंठ निमग्ना बनकर श्रुतसाधना की साधिका बनूं? यद्यपि जैन शासन के गगनतल पर अनेक आचार्यों ने समवतरित होकर श्रुत साधना को साकार किया है फिर भी मैंने अनेक महामहिम विद्वद्वर्य पण्डित के मुखारविंद से यह श्रवण किया की समन्वयवादी आचार्य हरिभद्र का सम्पूर्ण वाङ्मय श्रुत सागर को अवगाहित कर एक बार जीवन में आत्मग्राही बनाने योग्य है, संयोगों की प्रतीक्षा में थी वही प्रतीक्षा शोध कार्य निमित्त पाकर प्रयोगों में मूर्तिमान बनी। उन्हीं के विद्यामय वाङ्मय पर दृष्टि डालती हुई बोध को बुद्धि गम्य बनाती हुई अपने शोध का विषय बनाया “आचार्य हरिभद्र सूरि के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य" इस विषय को केन्द्र में रखकर मेरा उद्देश्य होगा कि मैं ऐसे समदर्शी आचार्य के विशाल वाङ्मय में निमज्जित होकर उनके सम्पूर्ण दार्शनिक चिंतन की विवेचना करूँ। सर्वेक्षण : परम प्रतिभावान् आचार्य हरिभद्र के साहित्य और दर्शन पर अनेकानेक विद्वानों ने अपनी लेखनी चला कर अपने को धन्य किया। श्रुत-साधना के अपूर्व साधक महोपाध्याय यशोविजयजी एवं आर्य मलयगिरिजी भाष्य एवं टीका-लिखकर समादृत हुए वर्तमान समय में ऐसे मनीषी आचार्य पर कुछ महत्वपूर्ण शोध कार्य भी सम्पन्न हुए।
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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