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________________ सिद्धान्तवाले पुद्गल शब्द से जीव को कहते है अर्थात् उनके मत में पुद्गल और जीव दो स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। अथवा पुद्गल से भिन्न उपयोगलक्षण से संयुक्त जीव को वे लोग नहीं मानते। इसके सिवाय किसी के मत में जीव और पुद्गल दो द्रव्य तो माने है परन्तु उन्होंने पुद्गलों को स्पर्शादि गुणों से रहित माना है। उन सबका खण्डन करते हुए उपरोक्त व्याख्या का समर्थन हरिभद्र सूरि ने अपनी टीका में किया है कि पुद्गल स्पर्शादि गुणों से युक्त होते है।२७५ ध्यान-शतक की वृत्ति में आ. हरिभद्र ने पुद्गल का स्वरूप इसी प्रकार प्रस्तुत किया है - स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमूर्तस्वभावका / सङ्घातभेदनिष्पन्ना, पुद्गला जिनदेशिताः / / 276 पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द स्वभाववाला और इसी से मूर्तस्वभाववाला तथा संयोजन और विभाजन से उत्पन्न होनेवाला है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। पुद्गल की इसी प्रकार की व्याख्या षड्द्रव्यविचार,२७७ प्रशमरति,२७८ अनादि विंशिका,२७९ षड्दर्शन समुच्चय२८० की टीका में मिलती है। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण - भगवति में पुद्गलास्तिकाय का लक्षण एवं जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है इसका निरूपण इस प्रकार है - 'हे गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के औदारिक, वैक्रिय आहारक, तेजस, कार्मण, श्रोतेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और श्वासोश्वास का ग्रहण होता है। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण ‘ग्रहण' रूप है।२८१ उत्तराध्ययन सूत्र में पुद्गल का लक्षण निम्नोक्त प्रकार से कहा है - सद्दऽन्धयार-उज्जोओ पहा छायाऽऽतवे इ वा। वण्ण रस-गन्ध फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं / / 282 शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये पुद्गल के लक्षण है। वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थ सूत्र२८३ में, नवतत्त्व२८ में, लोकप्रकाश२८५ में, षड्दर्शन समुच्चय की टीका२८६ में तथा प्रशमरति२८७ में इसके सिवाय संसारी जीवों के कर्म, शरीर, मन, वचन, क्रिया, श्वास, उच्छ्वास, सुख-दुःख देनेवाले स्कन्ध पुद्गल है। जीवन और मरण में सहायक स्कंध है। (यह सब पुद्गल के उपकार हैं।) अर्थात् ये सब पुद्गल के कार्य है। ___आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में 'शब्द, बन्ध' आदि को लेकर विस्तृत विवेचन किया है वह इस प्रकार है - (1) शब्द अर्थात् ध्वनि या कान से सुनाई देनेवाली आवाज अथवा जिसके द्वारा अर्थ का प्रतिपादन हो / सामान्य रूप से यह छः प्रकार का होता है। 1. तत्, २.वित, 3. घन, 4. शुषिर, 5. संघर्ष और 6. भाषा। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII IIIIIIIA द्वितीय अध्याय 138 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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