________________ पर्यन्त में होता है। क्योंकि दीपक के समान जीव द्रव्य के प्रदेशों में विसर्ग अर्थात् संकोच और विस्तार का स्वभाव माना है। क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि अवगाहना योग्य बड़े शरीरानुसार क्षेत्र को वह पाता है। इतने में ही अवगाह कर लेता है। जब वह शरीर रहित हो जाता है तब उसका प्रमाण अन्य शरीर से तीसरे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में निमित्त के अनुसार व्याप्त हुआ करता है। कभी तो महान् अवकाश को छोडकर थोडे आकाश को संकुचित होकर घेरता है। और कभी थोडे अवकाश को छोडकर महान् अवकाश में विस्तृत होकर घेरता है। जघन्य अवकाश का प्रमाण लोक का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट सम्पूर्ण लोक है। मध्य की अवस्थाएँ अनेक है। दीपक का दृष्टांत संकोच और विस्तार स्वभाव को दिखाने के लिये दिया है। उसका अभिप्राय यह नहीं है कि जिस प्रकार दीपक सम्पूर्ण लोक को व्याप्त नहीं कर सकता उसी प्रकार आत्मा भी नहीं कर सकता अथवा दीपक अनित्य है उसी प्रकार आत्मा भी अनित्य है इत्यादि क्योंकि दृष्टांत और दार्टान्तिक में सम्पूर्ण साम्यता अशक्य है। अन्यथा उसका भेद ही समाप्त हो जायेगा। 4. अथवा अनेकान्तवाद की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु उत्पदादि तीन धर्मों से युक्त है।२७०० पांच अस्तिकाय में अरूपी जीव में जीवास्तिकाय ही आता है। शेष अस्तिकाय अजीव है। जीवास्तिकाय का स्वरूप किसी दर्शन में नहीं मिलता है। भगवान महावीर की ही अनूठी देन है। जिसको आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने अपने शास्त्रों में सुन्दर श्रेष्ठ भावों के साथ आलेखित किया। | पुद्गलास्तिकाय पुद्गल की व्याख्या हमें अनेक ग्रन्थों में मिलती है। परम तारक परमात्मा ने भगवती सूत्र में अनंत परमाणु एवं स्कन्धों के समूह को पुद्गलास्तिकाय कहा है। ___ स्थानांग में पंच वर्ण, पंच रस, दो गंध, अष्टस्पर्शवाला रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य पुद्गलास्तिकाय है।२७९ समवायांग की टीका में रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय कहा गया है।२७२ पंचास्तिकाय में जो कुछ भी दिखाई देता है तथा पाँच इन्द्रियों का विषय होने योग्य है उसे पुद्गलास्तिकाय कहते है। 'यदृश्यमानं किमपि पंचेन्द्रियविषययोग्यं स पुद्गलास्तिकायोभव्यते।' 273 वाचक उमास्वाति म.सा. ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है - ‘स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।२७४ सभी पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णवान् हुआ करते है। कोई पुद्गल ऐसा नहीं है जिसमें ये चारों गुण न पाये जाते है। तत्त्वार्थ के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में जो सर्वशून्यवादी नास्तिक अथवा बार्हस्पत्य [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIINDIA द्वितीय अध्याय 137)