SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनाश भी अशक्य है। तथा 'सत्' ऐसे जीव का सर्वथा विनाश संभवित नहीं है। अतः जीव अनादि निधन है। (2) अमूर्त - जो रूपादि सस्थानों से संस्थित हो उसे मूर्त कहते है। और उससे जो विरहित हो वह अमूर्त / जीव का कोई आकार विशेष नहीं होने से अमूर्त है। (3) परिणामी - कथञ्चित् अवस्थित रही हुई वस्तु के पूर्व-पर्याय का त्याग और उत्तरपर्याय की प्राप्तिजैसे कि मनुष्यगति रूप पर्याय का त्याग कर देवगति रूप पर्याय को स्वीकार करना, यह जीव को परिणामी जब स्वीकारा जाता है तब ही घटित होता है। अन्य दर्शनों की भाँति कूटस्थ नित्य मानने पर जीव का परिणामी स्वरूप संभवित नहीं है। (4) ज्ञायक - जीव ज्ञान स्वभाव वाला है, अन्यदर्शनकारों के द्वारा मान्य जीव ज्ञान से एकान्त भिन्न नहीं है। (5) कर्ता - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग आदि कर्म बन्धन के हेतुओं से युक्त जीव उन-उन कर्मों का कर्ता तथा निवर्तक है। (6) भोक्ता - मिथ्यात्व आदि के द्वारा बंध किये हुए स्वयं के कर्मों का भोक्ता है जो कर्म-बन्ध करता है वही उन कर्मों का भोक्ता भी होता है।२५२ पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने पारिणामिक भाव से जीव को अनादि-निधन बताया है। जैसे कि जीव पारिणामिकभाव से अनादि निधन, औदायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक भाव से सादिनिधन क्षायिकभाव से सादि अनन्त है। वह जीव पाँच मुख्य गुणों की प्रधानता वाला है। जीव को कर्म कर्तृत्व भोक्तृत्व, संयुक्त्व आदि भी बताया गया है।२५३ जीव का लक्षण - उत्तराध्ययन सूत्र में जीव का लक्षण इस प्रकार किया है - "जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य॥२५४ उपयोग (चेतना व्यापार) जीव का लक्षण है जो ज्ञान-दर्शन-सुख और दुःख से पहचाना जाता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ध्यानशतक में जीव का लक्षण एवं स्वरूप इस प्रकार बताया है - उवओग लक्खणाइणिहणमत्थंतरं सरीराओ। जीवमरुविं कारि भोयं च सयस्स कम्मस्स // 255 आत्मा उपयोग लक्षणवाला है अनादि अनंत शरीर से भिन्न स्वयं कर्मों का कर्ता और स्वयं के किये हुए कर्मों का भोक्ता है ध्यानशतक की वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने इसको स्पष्ट किया है / वह इस प्रकार - जीव का लक्षण उपयोग है। यह ज्ञान-दर्शन दो प्रकार से है - ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग - अर्थात् साकारोपयोग - ज्ञान यह विशेष उपयोग है और निराकार - यह दर्शनोपयोग है। अर्थात् सामान्य उपयोग। वस्तु को विशेष देश, काल, क्षेत्र, भाव से देखना साकारोपयोग कहलाता है और [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VINITION IIIIINA द्वितीय अध्याय | 134 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy