________________ * 'जीवास्तिकाय' अर्थात् - 'जीवन्ति, जीविष्यन्ति, जीवितवन्त इति जीवाः ते च तेऽस्ति-कायाश्चेति समासः प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशात्मक सकललोकभाविनानाजीव द्रव्य समूह इत्यर्थः / 245 . जो जीते है, जीयेंगे और जीवित मिल रहे है वे जीव है वे कायवान् है। प्रत्येक असंख्यात प्रदेशात्मक सम्पूर्ण लोक में रहे हुए विविध जीवद्रव्य का समूह जीवास्तिकाय कहलाता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अनुयोगद्वार हारिभद्रीयवृत्ति में जीवास्तिकाय की यही व्याख्या की है।२४६ लेकिन पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में दिगम्बराचार्य जयसेनसूरि ने जीव को शुद्ध निश्चय से विशुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभावरूप चैतन्य प्राण शब्द से कहा है, जो प्राणों से जीता है वह जीव है। व्यवहारनय से कर्मोदयजनित द्रव्य और भावरूप चार प्राणों से जीता है, जीवेगा और पूर्व में जीता था वह जीव है।२४७ धर्मसंग्रहणी की टीका में आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार निर्दिष्ट किया है - जो जीता है, प्राणों को धारण करता है वह जीव है। प्राण दो प्रकार के है - द्रव्यप्राण और प्राणभाव। द्रव्यप्राण - इन्द्रियादि पाँच, तीन बल, उच्छ्रास और ये दस प्राण भगवान ने कहे है तथा भाव प्राण - ज्ञान दर्शन और चारित्र है।२४८ प्रज्ञापना की टीका में जीव की यही व्याख्या मिलती है।२४९ / / जीव का स्वरूप : आचार्य हरिभद्रसूरि 'ध्यानशतक हारिभद्रीय वृत्ति' में जीव का स्वरूप इस प्रकार उल्लिखित किया है - ज्ञानात्मा सर्वभावज्ञो भोक्ता कर्ता च कर्मणाम्। नानासंसारि मुक्ताख्यो, जीव प्रोक्तो जिनागमे / / 250 जीव ज्ञान स्वरूप है, सर्वभावों का ज्ञाता है, कर्म का भोक्ता व कर्ता है, भिन्न-भिन्न अनेक जीव संसारी और मुक्त रूप में है ऐसा जिनागमों में कहा है। __आचार्य हरिभद्रसूरि एक बहुश्रुतधर होकर धर्मसंग्रहणी में जीव के स्वरूप को इस प्रकार समुल्लिखि किया है। जीवो अणादिणिहणोऽमुत्तो, परिणामी जाणओ कत्ता। मिच्छत्तादिकत्तस्स य, णियकम्मफलस्स भोत्ता उ॥२५१ (1) जीव अनादि निधन है, (2) अमूर्त है (3) परिणामी है (4) ज्ञाता है (5) कर्ता है (6) तथा मिथ्यात्व आदि से उपार्जित अपने ही कर्मों का भोक्ता है। ___ इसी ग्रन्थ के समर्थ टीकाकार आचार्यश्री मलयगिरिने अपनी टीका में इसका स्पष्ट स्वरूप निर्दिष्ट किय है / जैसे कि - (1) अनादि निधन - यह जीव अनादि निधन अर्थात् अनादि अनंत है। जिसकी आदि भी नहीं है और जिसका अन्त भी नहीं है, क्योंकि मोक्षगमन के पश्चात् उसका अस्तित्व अनंतकाल तक रहता है। जिस: उत्पत्ति होती है उसका विनाश निश्चित होता है। लेकिन जीव की उत्पत्ति के कारणों का अभाव होने से उसक | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII द्वितीय अध्याय 133