________________ आवृत्त होता है। अर्थात् किसी भी समय किसी भी रूप को अपने में प्रवेश के समय रोकता नहीं है। अर्थात् कोई भी पदार्थ उसमें प्रवेश पा सकता है। वसुबन्धु का यह लक्षण कुछ जैन दर्शन के आकाश के लक्षण से साम्यता रखता है। प्रवेश के समय नहीं रोकना, अर्थात् पदार्थों को प्रवेश के लिए अवकाश देना। आकाश नित्य, अपरिवर्तनशील असंस्कृत धर्म है। इससे सांख्य के मत का निरास हो जाता है जो आकाश को प्रधान का विकार मानता है। इससे इसे भावात्मक पदार्थ मानना उचित है। यह शून्य स्थान नहीं है न भूत और भौतिक पदार्थों का निषेधरूप है और इस वाक्य से जो आकाश को शून्य मानकर तिरस्कार करते है उनका मत भी अपास्त हो जाता है। स्थविरवादियों ने आकाश को महाभूतों से उत्पन्न धर्मों में माना है। परंतु सर्वास्तिवादियों ने इसे बहुत ऊँचा स्थान दिया है। वे आकाश को दो प्रकार का मानते है। एक तो दिक् का तात्पर्यवाची है और दूसरा ईश्वर सर्वव्यापी सूक्ष्म वायु का पर्यायवाची / दोनों में महान् अन्तर है। एक दृश्य, सास्रव तथा संस्कृत है, तो दूसरा इससे विपरीत शंकराचार्य के खण्डन (शंकरभाष्य 2/2) से प्रतीत होता है कि उनकी दृष्टि में वैभाषिक लोग आकाश को अवस्तु अथवा आवरणभाव मात्र मानते है। इसलिए.वे आकाश का भावत्व प्रतिपादन करने के लिए प्रवृत्त हुए थे। परन्तु अभिधर्म कोष' से वह भाव पदार्थ ही प्रतीत होता है। यशोमित्र के कथन इस प्रकार है - 'तदनावरणस्वभावमाकाशम् / तद् अप्रत्यक् विषयत्वादस्य धर्मानावृत्या अनुमीयते न तु आवरणाभावमात्रम्। अतएव च व्याख्ययते यत्र रूपस्य गतिरिति।' इससे सिद्ध होता है कि आवरणभाव वैभाषिक मत में आकाश का लिंग है, स्वरूप नहीं है। वैभाषिक लोग भाव रूप मानते है। इसलिए कमलशील ने 'तत्त्वसंग्रहपंजिका' में उन्हें बौद्ध मानने में संकोच दिखलाया है।२४३ कुछ लोग आकाश को अवकाश के हेतु के साथ-साथ गति-स्थिति का हेतु भी मानते है। लेकिन उनकी यह मान्यता उचित नहीं है। क्योंकि यदि आकाश गति-स्थिति का भी कारण हो तो, उस आकाश का लोक के बहिर्भाग में भी सद्भाव होने से वहाँ पर भी जीव पुद्गलों का गमन होने लगेगा। उससे अलोक का क्षेत्र कम होने लगेगा और लोक का क्षेत्र बढने लगेगा। किन्तु वैसा तो हो नहीं सकता। इस से यह ज्ञात होता है कि आकाश द्रव्य, जीव और पुद्गलों की गमन और स्थिति का कारण नहीं है। इसलिए धर्म और अधर्म ही गमन और स्थिति में कारण है आकाश नहीं ऐसा जिनेश्वरों ने लोकस्वभाव, वस्तुस्वभाव के जाननेवाले श्रोताओं को समवसरण में देशना देते हुए कहा है।२४४ इस प्रकार आकाश का वास्तविक स्वरूप तो अवगाह रूप है जो जैनाचार्यों की अनुत्तर व्याख्या है। जीवास्तिकाय जीवास्तिकाय - जीव शब्द के विषय में अनेक प्रकार की मान्यताएँ सभी दर्शनों में मिलती है। लेकिन यहाँ वे सब चर्चाएँ न करके जीवास्तिकाय को ही विशेष रूप से स्पष्ट करेंगे। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII VIII द्वितीय अध्याय | 132