________________ है। इसी कारण उसका अवगाह लोक के असंख्यातवे भाग आदि में भी हो सकता है। क्योंकि शरीर की अवगाहना का जघन्य प्रमाण अंगुल के असंख्यातवे भाग ही है।२४० ___ आकाशद्रव्य भी धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह नित्य, निष्क्रिय, अवस्थित, अमूर्त तथा अस्तिकाय बहुप्रदेशी है। इतनी विशिष्टता है कि यह अनन्तप्रदेशी है तथा लोक-अलोक सर्वत्र व्याप्त है। लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर अनंत प्रदेश है, यदि विभाग की अपेक्षा से देखा जाय तो लोकाकाश प्रदेश धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य अथवा एक जीव द्रव्य के प्रदेशों के बराबर है। क्योंकि आकाश के जितने प्रदेश है उन्हीं में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और जीवद्रव्य के प्रदेश भी व्याप्त होकर अवगाह कर रहे है, और इसके भी प्रदेश असंख्य है। अतः लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है / शेष अलोकाकाश अनन्त अपर्यवसान है। क्योंकि अनन्त में से असंख्यात कम हो जाने पर भी अनन्त ही शेष रहते है। धर्म-अधर्म एक जीवद्रव्य और लोकाकाश इन चारों के प्रदेश समकक्ष है। भगवती४१ और स्थानांग में आकाशास्तिकाय का स्वरूप, आकाशास्तिकाय - अवर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोकालोक रूप द्रव्य है। वह संक्षेप में पाँच प्रकार का कहा गया है. जैसे - (1) द्रव्य की अपेक्षा - आकाशास्तिकाय एक द्रव्य है। - (2) क्षेत्र की अपेक्षा - आकाशास्तिकाय लोक-अलोक प्रमाण सर्व व्यापक है। (3) काल की अपेक्षा - आकाशास्तिकाय कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। अतः वह ध्रुव निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। (4) भाव की अपेक्षा - आकाशास्तिकाय अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श है। ... (5) गुण की अपेक्षा - आकाशास्तिकाय अवगाहना गुणवाला है।२४२ कुछ लोक नैयायिक वैशेषिक आकाश का लक्षण शब्द मानते है। जैसे कि - 'शब्दगुणकमाकाशम्' / सांख्य प्रधान के विकार को आकाश कहते है। परन्तु ये सभी कल्पनाएँ मिथ्या है। शब्द तो पुद्गल का पर्याय है। जो आगे पुद्गलास्तिकाय बताया जायेगा और उसके गुण स्वभाव से सिद्ध है। शब्द यदि आकाश का गुण होता, तो इन्द्रिय द्वारा उपलब्ध नहीं हो सकता था और न मूर्त पदार्थ के द्वारा रुक सकता था, एवं न मूर्त पदार्थों के द्वारा उत्पन्न ही हो सकता था। अतएव पुद्गल के ही पर्याय है। जो प्रधान का विकार स्वीकारते है वह भी उचित नहीं है, क्योंकि नित्य, निरयव और निष्क्रिय प्रधान से अनित्य, सावयव और सक्रिय शब्दरूप परिणमन कैसे हो सकता है ? बौद्ध-दर्शन मीमांसा में आकाश का वर्णन 'वसुबन्धु' ने 'अनावृत्ति' शब्द के द्वारा किया है 'तत्राकाशं अनावृत्तिः' अनावृत्ति का तात्पर्य है कि आकाश न तो किसी को आवरण करता है और न अन्य धर्मों के द्वारा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII VA द्वितीय अध्याय | 131