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________________ आकाश एक द्रव्य ही है। इसी बात को आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थ टीका में स्पष्ट की है। ‘एकद्रव्याण्येव, तेषां समानजातीयानि द्रव्यान्तराणि न सन्ति इत्यर्थ' / 238 आकाशादि एक ही द्रव्य है क्योंकि उसके समान जाति वाले अन्य द्रव्य नहीं होते है। तथा 'आकाशस्यानन्ताः' अनन्त प्रदेश है। तत्त्वार्थ टीका में आचार्य हरिभद्र ने इस सूत्र को विशेष स्पष्ट किया है। लोकालोकाकाशस्य सामान्येनाखिलस्य किमित्याह अनन्ताः प्रदेशाः,२३९ अर्थात् लोकालोक के सामान्य से अनन्त प्रदेश है। अतः विशेष अपेक्षा से उसके दो भेद है - लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है, अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है। वास्तव में ये दो भेद आकाश के उपचार से है। आकाश एक अखण्ड द्रव्य ही है। जहाँ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य की प्रवृत्ति होती है वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश। धर्म-अधर्म पुद्गल और जीव द्रव्य आकाश के समान आत्मप्रतिष्ठ-निराधार है, अथवा आधार की अपेक्षा नहीं रखते हैं। यह निश्चयनय की अपेक्षा से परन्तु व्यवहार नय से तो धर्म-अधर्म-पुद्गल और जीवद्रव्य वास्तव में अपने आधार पर ही स्थित है। तथा लोकाकाश में प्रवेश करनेवाले पुद्गलादिकों का अवगाह होता है। सभी द्रव्य लोकाकाश में संस्थित है परन्तु उनका ठहरना दो प्रकार का है - सादि और अनादि / सामान्यतया सभी द्रव्य अनादिकाल से लोकाकाश में समाये हुए हैं। किन्तु विशेष दृष्टि से जीव और पुद्गल का अवगाह सादि कहा जा सकता है। क्योंकि ये दोनों द्रव्य सक्रिय एवं गतिशील है। इनमें क्षेत्रांतर हुआ करता है। अतः इनका लोकाकाश के अन्दर ही भिन्न-भिन्न क्षेत्र में अवगाह होता रहता है। परन्तु धर्म-अधर्म द्रव्य ऐसे नहीं है वे नित्य व्यापी है। अतएव उनका अवगाह सम्पर्ण लोक में हमेशा तदवस्थ रहता है। ___ अवगाह दो प्रकार से सम्भव हो सकता है। एक तो पुरुष के मन की तरह, दूसरा दूध पानी की तरह। इसमें से दूध पानी का अवगाह प्रकृत अभीष्ट है। अथवा जिस प्रकार आत्मा शरीर में व्याप्त होकर रहती है उसी प्रकार धर्म-अधर्म भी लोकाकाश में व्याप्त होकर रहते है। पुद्गल द्रव्य चार प्रकार के है - अप्रदेश, संख्यप्रदेश, असंख्यप्रदेश और अनन्तप्रदेश / इनका लोक में अवगाह जो होता है वह एक से लेकर संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेशों यथायोग्य होता है। जैसे कि - जो परमाणु अप्रदेश है उसका अवगाह एक प्रदेश में ही होता है क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेशरूप ही है। तथा लोकाकाश के जितने प्रदेश है, उनके असंख्यातवे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त में जीवों का अवगाह हुआ करता है। जैसे कि कोई एक जीव एक समय में लोक के एक असंख्यातवे भागों को रोकता है तो वही जीव दूसरे समय में अथवा कोई दूसरा जीव लोक के असंख्यातवे भागों को रोकता है। कभी तीन-चार संख्येय भागों को अथवा सम्पूर्ण लोक को भी रोकता है। क्योंकि जब केवली भगवान समुद्धात करते है उस समय उनकी आत्मा के प्रदेश क्रम से दंड कपाट प्रतर और लोकपूर्ण हुआ करते है। दीपक के समान जीव द्रव्य प्रदेशों में संहार और विसर्ग अर्थात् संकोच और विस्तार का स्वभाव माना | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIII VINA द्वितीय अध्याय | 130
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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