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________________ सभी द्रव्यों का भाजन (आधार) आकाश है। वह अवगाह लक्षणवाला है। स्थानांग, 219 स्थानांगवृत्ति,२२० न्यायालोक,२२१ अनुयोग मलधारीया वृत्ति,२२२ उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति,२२३ जीवाभिगम मलयगिरीयावृत्ति,२२४ लोकप्रकाश,२२५ षड् द्रव्य विचार२२६ / इन सूत्रों में तथा टीका में आकाश को आधार एवं आकाश के अवगाह गुण को बताया गया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी अनुयोग हारिभद्रीयवृत्ति में आकाश का लक्षण यही किया है - 'अवगाहलक्षणमाकाशम्'२२० तथा शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका,२२८ षड् दर्शनसमुच्चय की टीका२२९, ध्यानशतक वृत्ति२२० में तथा वाचक उमास्वाति रचित तत्त्वार्थ सूत्र ‘आकाशस्य अवगाह'२३१ में अवग्रह लक्षण को स्वीकृत किया है। तत्त्वार्थ सूत्र की हारिभद्रीय टीका में आ. हरिभद्रने एक ऐसा सुंदर रूपक दर्शित करते हुए प्रवेशदान से आकाश को एक उच्चतरीय महादानी रूप से समुल्लिखित किया है। वह इस प्रकार है - ‘आकाशं अन्तः प्रवेश सम्भवेन स्वमध्ये धर्मादिप्रवेशदानेन, आकाशदेशाभ्यन्तरवर्तिनो हि धर्माधर्मप्रदेशाः।' आकाश का उपकार लक्षण उपयुक्त और उचित सिद्ध कर आकाश की महानता का दिग्दर्शन दिया है। आकाश ने धर्माधर्म पुद्गल और जीव इनको अवकाश आश्रय दिया है। आकाश इन सबको अपने अन्त-स्तल में प्रवेश देता है। जिस प्रकार घट बदरीफल को रहने के लिए अवकाश स्थान देता है। उसी प्रकार आकाश भी धर्म-अधर्म द्रव्यों को अपने अन्तः करण में रहने का अवकाश देता है। अवकाश देना उसका अपना धर्म है तथा अवकाश वही दे सकता है जो उदार, महादानी होता है। आकाश ने सभी को स्थान दिया, किसी का तिरस्कार नहीं किया, फिर भी स्वयं निरालम्ब बनकर सुप्रतिष्ठित है। धर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होकर रहता है और जो लोक के बराबर असंख्यात प्रदेशी होकर भी अखण्ड है। उसकी समान जाति का गति में सहकारी दूसरा कोई भी द्रव्य नहीं है। इसी प्रकार अधर्मद्रव्य भी लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी एक ही है। वह भी लोक में व्याप्त होकर रहनेवाला अखण्ड द्रव्य है। अर्थात् दोनों द्रव्य आधेयरूप से आकाश में रहते है। और आधार बनकर आकाश उनको अवगाह प्रदान करता है। धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रदेशों का लोकाकाश के प्रदेश से कभी भी विभाग नहीं होता है। अतः इनके अवगाह में आकाश जो उपकार करता है वह अन्तः अवकाश देकर करता है। किन्तु जीव और पुद्गल द्रव्य में यह बात नहीं है, क्योंकि ये अल्पक्षेत्र-असंख्येय भाग को रोकते है और क्रियावान् होने से एक स्थान से हटकर दूसरे स्थान में पहुंचते है। अतः अन्तः अवकाश देकर भी उपकार किया करता है और पुद्गल तथा जीवों के अवगाह में संयोग विभाग के द्वारा भी आकर उपकार किया करता है।२३२ सामान्य से आकाश एक अखण्ड अनन्त प्रदेशी है यह पाठ स्थानांग२३३ में ‘एगे लोए' से मिलता है तथा इसी प्रकार का पाठ समवायांग,२३४ भगवती२३५ तथा औपपातिक२३६ में मिलता है। वाचक प्रमुख उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में यह बात निर्दिष्ट की है - 'आकाशादेकद्रव्याणीति'२३७ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII अद्वितीय अध्याय | 129
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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