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________________ "मर्यादामाकाशे भवन्ति भावाः स्वात्मनि च, तत्संयोगेऽपि स्वभाव एवावतिष्ठन्ते नाकाशभावमेव-यान्ति अभिविधौतु सर्वभावव्यापनादाकाशं, सर्वात्मसंयोगादिति भावः।२१४ उपरोक्त परिभाषाओं से तो यह अभिव्यक्त होता है कि पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से प्रकाशित होते है जब कि बहुश्रुत आचार्य हरिभद्रने इस व्याख्या में एक नवीन विलक्षणता दिखाकर यह ज्ञात करवाया कि पदार्थों का जब उस आकाश के साथ संयोग होता है उस संयोगरूप अनुभव लक्षण से सभी पदार्थ जहाँ प्रकाशित होते है दीप्तिमान् होते है वह आकाश है। . अनुयोग मलधारीय टीका में भी आकाश की व्युत्पत्ति मिलती है। साथ ही आकाशास्तिकाय किसे कहते है यह भी बताया गया है। आकाश प्रदेशों के समूह को आकाशास्तिकाय कहते है तथा वह लोक अलोक व्याप्य अनन्त प्रदेशात्मक अमूर्त द्रव्य विशेष है। लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मकोऽमूर्त्तद्रव्यविशेष इत्यर्थ / 215 आकाशास्तिकाय का लक्षण - भगवती में भगवान गौतम से कहते है कि हे गौतम ! आकाशास्तिकाय जीव और अजीव द्रव्यों का भाजन-भूत (आश्रयरुप) है। अर्थात् आकाश से जीव और अजीव द्रव्यों के अवगाह की प्रवृत्ति होती है। जैसे कि गाथा में कहा है - एगेण वि से पुण्णे दो हि, वि पुण्णे सयं पि माएजा। कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं वि माएजा // आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश में 100 परमाणु भी समा सकते है और जो आकाश प्रदेश 100 करोड परमाणुओं से पूर्ण है। उसी एक आकाश प्रदेश में हजार करोड परमाणु भी समा सकते हैं। जैसे कि एक मकान में एक दीपक रखा है, वह उसके प्रकाश से भरा हुआ है। यदि दूसरा दीपक भी वहाँ रखा जाय, तो उसका प्रकाश भी उसी मकान में समा जाता है। इसी प्रकार सौ यावत् हजार दीपक भी उसमें रख दिये जाय तो उनका प्रकाश भी उसी में समा जाता है, बाहर नहीं निकलता / इसी प्रकार पुद्गलों के परिणाम की विचित्रता होने से एक, दो संख्यात, असंख्यात यावत् अनन्त परमाणुओं से पूर्ण, एक आकाश प्रदेश में एक से लेकर अनन्त परमाणु तक समा सकते है। इसी बात की स्पष्टता के लिए टीकाकार ने एक दूसरा दृष्टांत भी दिया है - औषधि विशेष से परिणमित एक तोले पारद की गोली सौ तोले सोने की गोलियों को अपने में समा लेती है। पारे में परिणत उस गोली से औषधि विशेष का प्रयोग करने पर वह तोले भर पारा पृथक् हो जाता है और वह सौ तोले भर सोना भी पृथक् हो जाता है। यह सब पुद्गल परिणामों की विचित्रता के कारण होता है। इसी प्रकार एक आकाश प्रदेश, जो कि एक परमाणु से भी पूर्ण है उसी प्रकार अनन्त परमाणु भी समा सकते है।२९६ पंचास्तिकाय में ऐसा ही कहा है।२१७ लक्षण - उत्तराध्ययन सूत्र में - ‘भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं / '218 [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 128 |
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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