________________ सामान्य रूप से देखना यह निराकारोपयोग याने दर्शन कहलाता है। साकार उपयोग आठ प्रकार का है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा मति अज्ञान श्रुत अज्ञान - विभंगज्ञान / निराकार उपयोग चार प्रकार का है - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है - स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेदः। यह उपयोग ही जीव का लक्षण / . काल स्थिति से अनादि अपर्यवसित है। जीव शरीर से भिन्न - म्यान में तलवार की भाँति यह जीव शरीर से भिन्न है। म्यान से तलवार सर्वथा भिन्न है। उसी तरह शरीर से जीव भी सर्वथा भिन्न है। संसार की किसी सामग्री का संयोग उसको आवश्यक नहीं है। लेकिन कर्म-संयोग जब तक आत्मा के साथ संयुक्त है तब तक सभी सामग्री रहती है। कर्म से वियुक्त हो जाने . पर जीव का स्वरूप अरूपी होता है। जीव अरूपी कर्म का कर्ता और कर्म का भोक्ता है। यह स्वरूप पहले बता दिया है।२५६ जीव का स्वरूप षड्दर्शन समुच्चय टीका में इस प्रकार समुल्लिखित किया है। जीव चेतन है, कर्ता है, भोक्ता है, प्रमाता है, प्रमेय है, असंख्यात प्रदेशवाला है, इसके मध्य आठ प्रदेश है, भव्य है, अभव्य है, परिणामी परिवर्तनशील है, अपने शरीर के बराबर ही परिणामवाला है। अतः आत्मा में ये सब अनेक सहभावी एक साथ रहनेवाले धर्म पाये जाते है तथा हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, मति आदि ज्ञान, चक्षुदर्शन आदि दर्शन, देव, नारक, तिर्यंच, और मनुष्य - ये चार अवस्थाएँ शरीर रूप से परिणत समस्त पुद्गलों से सम्बन्ध रखना, अनादि अनन्त होना, सब जीवों से सब प्रकार से सम्बन्ध रखना, संसारी होना, क्रोधादि असंख्य कषायों से विकृत होना, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि आदि भावों का सद्भाव, स्त्र। पुरुष और नपुंसकों के समान कामी प्रवृत्ति, मूर्खता तथा अन्धा, लूला, लंगडा आदि क्रम से होनेवाले भी अनेक * धर्म संसारी जीव में पाये जाते है।२५७ षड्दर्शन समुच्चय में जीव के विषय में आचार्य हरिभद्र की कारिका इस प्रकार मिलती है - तत्र ज्ञानादिधर्मेभ्यो भिन्नाभिन्नो विवृत्तिमान् / शुभाशुभकर्म कर्ता भोक्ता कर्मफलस्य च, चैतन्यलक्षणओ जीवो // 258 जीव चैतन्य स्वरूप है - यह अपने ज्ञान दर्शन आदि गुणों से भिन्न भी है तथा अभिन्न भी है। कर्मों के अनुसार मनुष्य पशु आदि पर्यायें धारण करता है। अपने अच्छे और बुरे विचारों से शुभ और अशुभ कर्मों को बांधता है तथा उनके सुख-दुःख रूप फलों को भोगता है। इसी प्रकार जीव का ज्ञान और उपयोग रूप लक्षण प्रज्ञापना टीका,२५९ आचारांग टीका,२६° उत्तराध्ययन बृहवृत्ति,२६१ पंचास्तिकाय,२६२ अनुयोग वृत्ति,२६३ नवतत्त्व२६४ आदि में भी मिलता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IA द्वितीय अध्याय 135 )