SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- उ. यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. हे आयुष्मान् ! समुद्र के उस पार पदार्थ है ? उ. हाँ, है। प्र. हे आयुष्मान् ! तुम समुद्र के उस पार रहे हुए पदार्थों को देखते हो ? उ. यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. हे आयुष्मान ! क्या तुम देवलोक में रहे हुए पदार्थों को देखते हो ? उ. यह अर्थ समर्थ नहीं है। हे आयुष्मान् ! मैं तुम या अन्य कोई भी छद्मस्थ मनुष्य जिन पदार्थों को नहीं देखते / उन सभी का अस्तित्व नहीं माना जाय तो तुम्हारी मान्यतानुसार तो लोक के बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायेगा ? इस प्रकार मद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थियों का पराभव किया और निरुत्तर किये। उन्हें निरुत्तर करके वह गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आया और पाँच प्रकार के अभिगम से श्रमण भगवान महावीर स्वामी की पर्युपासना करने लगा। भगवान महावीरस्वामी ने - हे मद्रुक ! इस प्रकार सम्बोधित कर कहा - तुमने अन्यतीर्थियों को ठीक उत्तर दिया है। हे मद्रुक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे और बिना सुने किसी अदृष्ट, अश्रुत, असम्मत, अविज्ञान अर्थ हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुत से मनुष्यों के बीच में कहता है, बताता है, वह अरिहन्तों की अरिहन्त कथित धर्म की, केवलज्ञानियों की और केवलिप्ररूपित धर्म की आशातना करता है। हे मद्रुक ! तुमने अन्यतीर्थियों को यथार्थ उत्तर दिया है। - भगवान की वाणी को सुनकर मद्रुक श्रमणोपासक अत्यंत आनंद विभोर बन गया और श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करके, न अति दूर एवं न अति समीप पर्युपासना करने लगा। भ. महावीर ने मद्रुक श्रावक को एवं परिषद को मधुर ध्वनि में देशना सुनाई। तत्पश्चात् पर्षदा का विसर्जन हुआ। उस मद्रुक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश सुना, प्रश्न पूछे, अर्थ जाने और खड़े होकर भगवान को वंदन करके लौट गया।१८२ - इस प्रकार मद्रुक श्रावक भगवान महावीर का ज्ञानवान्, प्रज्ञावान्, श्रद्धावान् श्रावक था। तथा ज्ञान के बल पर अन्य दर्शनियों के हृदय में भी तत्त्व की श्रद्धा का स्थान स्थिर करवा दिया। अतः अस्तिकाय भगवान महावीर की एक अनुपम अद्भुत देन है। तथा जिससे सम्पूर्ण लोक की संरचना व्यवस्थित बनती है और इसीलिए भगवानने कहा कि यह लोक भी पंचास्तिकायरूप है। आधुनिक युग में विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है। उसकी अपूर्व प्रगति विज्ञों को चमत्कृत कर रही है। विज्ञान ने भी दिक्, काल और पुद्गल इन तीन तत्त्वों को विश्व का मूल आधार माना है। इन तीनों तत्त्वों के बिना विश्व की संरचना सम्भव नहीं है। आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII TA द्वितीय अध्याय 121)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy