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________________ की। ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त किया।१८१ __ भगवती के अठारहवे (18) शतक के सातवे उद्देश में 'मद्रुक' श्रावक का अन्य तीर्थयों से वाद का प्रमाण मिलता है। वह इस प्रकार - उस समय राजगृह नामक नगर था। गुणशील चैत्य था। उसमें पृथ्वी शिलापट्ट था। गुणशील चैत्य के समीप बहुत अन्यतीर्थिक निवास करते थे। यथा -कालोदयी-शैलोदायी इत्यादि उपरोक्त 'यह कैसे माना जा सकता है' तक। उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से भी पराभूत नहीं होनेवाला जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मद्रुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। अन्यदा किसी दिन श्रमण भगवान महावीरस्वामी वहां पधारे / समवसरण की रचना एवं बार पर्षदा उनकी पर्युपासना करने लगी। भगवान महावीर का आगमन सुनकर मद्रुक श्रावक का मन मयूर नृत्य करने लगा। स्नान आदि से निवृत्त होकर, सुंदर अलंकारों से अलंकृत बनकर प्रसन्नचित्त होकर घर से निकला और पैदल चलता हुआ उन अन्यतीर्थिकों के समीप होकर जाने लगा। उन अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रावक को जाता हुआ देखा और परस्पर एक दूसरे से कहा - हे देवानुप्रियो ! वह मद्रुक श्रावक जा रहा है / हमें वह अविदित एवं असंभव तत्त्व पूछना है तो देवानुप्रियो ! हमे मद्रुक श्रमणोपासक से पूछना उचित है। ऐसा विचार कर तथा परस्पर एक मत होकर वे अन्यतीर्थिक मद्रुक श्रमणोपासक के निकट आये और मद्रुक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा - तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण-ज्ञातपुत्र महावीर पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते है। यह कैसे माना जाय? मद्रुक श्रमणोपासक ने कहा - वस्तु के कार्य से उसका अस्तित्व जाना और देखा जा सकता है। बिना कारण के कार्य दिखाई नहीं देता। अन्यतीर्थिकों ने मद्रुक श्रमणोपासक पर आक्षेप पूर्वक कहा - हे मद्रुक ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि जो तू पंचास्तिकाय को जानता-देखता नहीं है फिर भी मानता है। मद्रक श्रमणोपासक ने अन्यतीर्थिकों से कहा - हे आयुष्मान् ! वायु बहती है क्या यह ठीक है ? उत्तर : हाँ यह ठीक है। प्र. हे आयुष्मान ! बहती हुई वायु का रूप तुम देखते हो ? . उ. वायु का रूप दिखाई नहीं देता है / प्र. हे आयुष्मान ! गन्ध गुणवाले पुद्गल है ? उ. हाँ, है। प्र. आयुष्मान ! तुम उन गन्धवाले पुद्गलों के रूप को देखते हो ? उ. यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. हे आयुष्मान् ! क्या तुम अरणी की लकडी में रही हुई अग्नि का रूप देखते हो ? [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII MINIMIA द्वितीय अध्याय | 120 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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