________________ दिक और काल ये गति सापेक्ष है। गति सहायक द्रव्य जिसे धर्मद्रव्य कहा गया है, विज्ञान ने उसे ईथर' कहा है। आधुनिक अनुसंधान के पश्चात् ‘ईथर' का स्वरूप भी बहुतकुछ परिवर्तित हो चुका है। अब 'ईथर' भौतिक नहीं, अभौतिक तत्त्व बन गया है। जो धर्मद्रव्य की अवधारणा के अत्यधिक सन्निकट है। पुद्गल तो विश्व का मूल आधार है ही। भले ही वैज्ञानिक उसे स्वतंत्र द्रव्य न मानते हो किन्तु वैज्ञानिक धीरे-धीरे नित्य नूतन अन्वेषण कर रहे है। सम्भव है कि निकट भविष्य में पुद्गल और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य करे। इस प्रकार अस्तिकाय द्रव्य आज सर्वमान्य हो गया है। निष्कर्ष रूप में आचार्य हरिभद्रने आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति, अनुयोगहारिभद्रीयवृत्ति, तत्त्वार्थ हारिभद्रीय डुपडीका टीका में अस्तिकाय विषयक जो विवेचन दिया है वह विवेचन मान्य है और स्पष्ट है। उसे सभी दृष्टि से चित्रित करने योग्य है। इन टीकाओं तथा वृत्तियों में अस्तिकाय का अर्थ प्रदेशों का समूह ही स्वीकार किया है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय इस चराचर विश्व का अवलोकन करने पर हमें जो कुछ दिखाई देता है वह दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है। जड़ और चेतन / हमें जो पेड़ पौधे प्राणी और मनुष्यादि दिखाई देते है, वे सब चेतन अर्थात् सजीव है। उनमें से जब चेतन चला जाता है, तब वे अचेतन अर्थात् जड़ हो जाते है। अन्य दार्शनिकों ने जितने भी मूलतत्त्व माने है उन सब का समावेश सजीव और निर्जीव इन दो तत्त्वों में हो जाता है। लेकिन जैन दार्शनिकों का चिन्तन इस विषय में कुछ और विशिष्ट है। उन्होंने अचेतन के विभिन्न गुणधर्मानुसार उसका भी वर्गीकरण किया है। उन्होंने अनुभव किया कि सचेतन और अचेतन अपने गुणधर्मानुसार कुछ न कुछ कार्य करते ही है। वे कहीं न कहीं स्थित रहते है और उनका अवस्थान्तर होता है। वे स्थानान्तरण करते है और कही स्थिर होते है। सचेतन, अचेतन के इन कार्यों में सहायक होनेवाले तत्त्व इनसे भिन्न गुणधर्मवाले है। अतः वे मूलतत्त्व है / ऐसे और मूलतत्त्व चार है। मूलतत्त्व ही मूलद्रव्य है। जैन चिन्तकों ने मूल द्रव्य छह माने है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल। धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और जीव प्रदेशवान् है। अतः ये अस्तिकाय है। काल का कोई प्रदेश नहीं है। इसलिए काल अप्रदेशी काय होने से अस्तिकाय नहीं है। ___यद्यपि धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और काल का समावेश अजीव तत्त्व में ही होता है। फिर भी इनमें से प्रत्येक के गुण, धर्म, कार्य भिन्न-भिन्न होने से मूल द्रव्य माने गये है। ____ यहाँ पर हमारा मुख्य बिन्दु धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के विषय में चिन्तन करना है। यद्यपि दर्शन जगत में सर्वज्ञ काल-कर्म-सिद्धि आदि विषयों को लेकर सभी दर्शनकारों ने अपनी-अपनी मति-वैभवता के अनुसार चिन्तन मन्थन प्रस्तुत किया है। किन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यह जैन दर्शन की मौलिक मान्यता है। इसके विषय में किसी दर्शनकारों ने न चर्चा की है और न हि कुछ आलेखन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII द्वितीय अध्याय | 122]