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________________ अस्तिकाय रूप में स्वीकृत किया है। इन सभी प्रश्नों पर जैनाचार्यों ने अत्यंत गंभीर विचार-चिन्तन-मन्थन किया। जिसके फलस्वरूप उक्त प्रश्नों का समाधान किया है। यह वस्तुतः सत्य है कि धर्म-अधर्म-आकाश एक अखण्ड अविभाज्य द्रव्य है। लेकिन क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी है। अतः क्षेत्र की अपेक्षा से उनके अवयव की अवधारण या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गई है। परमाणु स्वयं में अविभाज्य निरवयव है। वह स्वयं कायरूप नहीं है / लेकिन वही परमाणु जब स्कन्ध रूप में बन जाता है तब वह सावयव हो जाता है। इसीलिए परमाणु में कायत्व की अवधारणा की गई है। अस्तिकाय अनस्तिकाय के विभाग का एक आधार बहुप्रदेशत्व भी माना गया है जो बहुप्रदेशी द्रव्य है, वह अस्तिकाय है और एकप्रदेशी है, वह अनस्तिकाय है तब यहाँ भी यह स्वाभाविक जिज्ञासा जागृत होती है कि धर्म-अधर्म-आकाश - ये तीनों द्रव्य स्वद्रव्य की अपेक्षा से एकप्रदेशी है। क्योंकि वे अखण्ड है। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है कि धर्म-अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है। क्योंकि क्षेत्र की अपेक्षा से धर्म-अधर्म को असंख्य प्रदेशी कहा है तथा आकाश को अनंतप्रदेशी कहा है। इसलिए उपचार से उनमें कायत्व की संभावना की गई है। पुद्गल परमाणु की अपेक्षा से नहीं परन्तु स्कन्ध की अपेक्षा बहुप्रदेशी है और अस्तिकाय की अवधारणा भी बहुप्रदेशत्व की दृष्टि से है। 177 ____ यहाँ पर एक प्रश्न और उठता है कि कालद्रव्य लोकव्यापी है फिर उसे अस्तिकाय क्यों नहीं माना गया? आगमशास्त्रों में उसका समाधान हमें संतोषजनक मिलता है कि कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित है। किन्तु प्रत्येक कालाणु अपने आप में स्वतंत्र है। स्निग्धता और रुक्षतागुण के अभाव में उनमें बंध नहीं होता। अतः वे परस्पर निरपेक्ष है और बंध के अभाव में स्कंध की कल्पना करना व्यर्थ है। तथा स्कन्ध के अभाव में प्रदेशप्रचयत्व की संभावना नहीं हो सकती। अतः कालद्रव्य में स्वरूप एवं उपचार इन दोनों ही प्रकार से प्रदेशप्रचय की कल्पना नहीं हो सकती है। - इस प्रकार धर्मास्तिकाय आदि पाँचों को अस्तिकाय कहा गया है। जिसका पाठ स्थानांग में इस प्रकार मिलता है - ___पंच अत्थिकाया पण्णता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए।१७८ इस प्रकार पांच अस्तिकाय है तथा अद्धा-समय-काल के साथ अस्तिकाय शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। इससे धर्मास्तिकाय के साथ इसका भेद स्पष्ट होता है। प्रज्ञापना में जीव के साथ भी अस्तिकाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीव के प्रदेश नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना के पाँचवे पद में जीव के प्रदेशों पर चिन्तन किया गया है। प्रथम पद में अजीव और जीव के मौलिक भेद कहे है, उन्हें ही पाँचवे पद में जीवपर्याय और अजीव पर्याय कहा है। तेरहवें में उन्हीं को परिणाम नाम से प्रतिपादित किया है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIII द्वितीय अध्याय | 117 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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