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________________ अजीव के दो भेद रूपी और अरूपी किये है। अरूपी अजीव के अन्तर्गत धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और अद्धा ये चार है। धर्म-अधर्म और आकाश के स्कन्ध, देश, प्रदेश ये तीन-तीन भेद प्रत्येक के है। यहाँ पर देश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धि के द्वारा कल्पित दो तीन आदि प्रदेशात्मक विभाग और प्रदेश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि के बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश जिसका पुनः विभाग न हो सके। धर्मास्तिकाय आदि के समग्र प्रदेश का समूह स्कंध है। अद्धा-काल को कहते है / वर्तमान काल का एक ही समय 'सत्' होता है। अतीत अनागत के समय या तो नष्ट हो चुके होते है अथवा उत्पन्न नहीं हुए होते है। अतः काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं है। रूपी अजीव के अन्तर्गत पुद्गल को माना गया है। उसके स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु ये चार प्रकार है। पुद्गल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से युक्त होता है।७९ अजीव अस्तिकाय के अन्तर्गत चार भेद आते है। जैसे - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / 180 ____ अस्तिकाय को लेकर उत्तरवर्ती शास्त्रों में किसी अन्यदार्शनिकों से चर्चा हुई हो ऐसा प्रायः जानने में नहीं आया है। लेकिन जैनागमों का पंचम व्याख्या प्रज्ञप्ति जिसे भगवतीजी नाम से संबोधित करते है उसमें अन्य दर्शनीयों का महावीरस्वामी, गौतमस्वामी एवं मद्रुक श्रावक के साथ अस्तिकाय की चर्चा का कुछ स्वरूप मिलता है। वह इस प्रकार है - भगवती के सातवे शतक के दसवे उद्देश में - उस समय अर्थात् जिस समय स्वयं महावीर परमात्मा अवनितल को पावन करते हुए विचर रहे थे। उस समय में राजगृही नामक नगर था। उसमें गुणशील नामक चैत्य था तथा उसमें पृथ्वी शिलापट था। उस गुणशील चैत्य के पास कुछ दूरी पर बहुत से अन्यतीर्थी रहते थे। जैसे कि कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नार्मोदय अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति। किसी समय वे सब एक स्थान पर आये और सुखपूर्वक बैठे। उनमें परस्पर इस प्रकार वार्तालाप हुआ कि - श्रमण-ज्ञातपुत्र (महावीर) पाँच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते है जैसे कि - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / इन में से श्रमण ज्ञात पुत्र चार अस्तिकाय को अजीवकाय कहते है। जैसे कि - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं एक जीवास्तिकाय को अरूपी जीवकाय कहते है। उन पाँच अस्तिकाय में चार अस्तिकाय अरूपी है। जैसे कि - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय / एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण-ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते है। उनकी यह बात कैसे मानी जा सकती है? उस समय श्रमण भगवान् महावीर गुणशील चैत्य में पधारे। उनके ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्री इन्द्रभूति अणगार भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए यथा-प्राप्त आहार पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से त्वरा रहित, चपलता रहित, संभ्रान्त रहित इर्यासमिति का पालन करते हुए, अन्यतीर्थिकों से थोडे दूर होकर निकले। तब अन्यतीर्थिकों [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIN [ अध्याय | 118
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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