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________________ प्रदेशों का समूह वह अस्तिकाय कहलाता है। प्रज्ञापना की टीका में - अस्ति यानि प्रदेशों का समूह है। कारण कि काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग और राशि ये पर्यायवाची शब्द है। अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूह।१६५ ___अस्तिकाय-प्रदेशों का समूह ऐसी व्याख्या समवायांग टीका,१६६ षड्दर्शन समुच्चय टीका,१६७ जीवाजीवाभिग टीका,१६८ अनुयोगमलधारीयवृत्ति,१६९ स्थानांग टीका७० आदि अनेक आगम ग्रन्थों में भी मिलती है। आ. हरिभद्रसूरि ने आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति में इस प्रकार समुल्लेख किया है - अत्थितिबहुप्रदेसा तेणं पंचत्थिकाया उ अस्तीत्ययं। त्रिकालवचनो निपातः अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना बहु प्रदेशास्तु यतस्तेन पञ्चैवास्तिकायाः तु शब्दस्यावधारणार्थत्वान्न न्यूना नाप्यधिका इति।' 171 __आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी अभयदेवसूरि के अस्ति शब्द विषयक अर्थ को अंगीकार किया है। यद्यपि हरिभद्र पूर्ववर्ती है और आचार्य अभयदेव उत्तरवर्ती। अतः हरिभद्र सूरि का ही अनुसरण आचार्य अभयदेवसूरि ने किया होगा। ऐसा ऐतिहासिक तथ्य जो आज भी सर्वमान्य है। जो किसी काल में न तर्कित बन सकता है न शंकित रह सकता है। अनुयोग हारिभद्रीयवृत्ति,७२ तत्त्वार्थ हारिभद्रीय डुपडिका टीका,९७३ ध्यानशतक हारिभद्रीयवृत्ति में भी अस्तिकाय का यही अर्थ मिलता है। यह महावीर की अपनी नूतन देन है। .. पंचास्तिकाय में अस्तिकाय की व्याख्या दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार की है - जिनका विविध गुण और पर्यायों के साथ अपनत्व है वे अस्तिकाय है और उनसे तीन लोक निष्पन्न होते है।१७५ इसी के तात्पर्यवृत्तिकार आचार्य जयसेन ने अस्तिकाय की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है। अस्तिकाय अर्थात् सत्ता, स्वभाव तन्मयत्व स्वरूप है। वही अस्तित्व और काया शरीर को ही काय कहते है। बहुप्रदेशप्रचयं फैले होने से शरीर को ही काय कहते है और उन पंचास्तिकाय द्वारा तीनों लोको की उत्पत्ति होती है अर्थात् विश्व-व्यवस्था में इनका महत्त्वपूर्ण योग है।१७६ प्रज्ञापना की प्रस्तावना में भी अस्तिकाय की व्युत्पत्ति इसी प्रकार मिलती है। अस्ति का अर्थ है सत्ता अथवा अस्तित्व और काय का अर्थ यहाँ पर अस्तिवान् के रूप में नहीं हुआ है। क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त शेष अमूर्त है। अतः यहाँ काय का लाक्षणिक अर्थ है जो अवयवी द्रव्य है, वे अस्तिकाय है और जो निरवयव द्रव्य है वह अनस्तिकाय है / दूसरे शब्दों में कह सकते है जिसमें विभिन्न अंश है-हिस्से है वह अस्तिकाय है। यहाँ पर स्वभाविक एक जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि अखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की संभावना करनी कहाँ तक युक्तिसंगत है ? क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय - ये तीनों द्रव्य निरवयव, अविभाज्य, अखण्ड है। अतः उनमें अवयवी होने का तात्पर्य क्या है ? कायत्व का अर्थ अवयव सहित यदि हम स्वीकारते है तो एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि परमाणु तो निरवय, निरंश और अविभाज्य है / तो क्या वह अस्तिकाय नहीं है ? परमाणु पुद्गलों का ही एक विभाग है और फिर भी उसे | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / द्वितीय अध्याय | 116
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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