________________ द्रव्यगुण-पर्याय रास में उपाध्याय यशोविजयजी ने एक गाथा में अन्यदर्शनों के साथ जैन दर्शन की मान्यता को स्पष्ट कर दी है - भेद भणे नैयायिकोजी, सांख्य अभेद प्रकाश। जैन उभय विस्तारताजी, पामे सुजश विलास // 156 कुछ मत्यांध दार्शनिक जगत में प्रत्येक द्रव्य को तथा द्रव्य-गुण-पर्याय को भी सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न मानते है। जिसमें नैयायिक आदि तथा कुछ सांख्यादि भिन्न-भिन्न द्रव्यों को तथा द्रव्य के स्वाभाविक और वैभाविक परिणमन को सर्वथा अभिन्न स्वीकारते है। इस प्रकार एकान्त पक्षपाती एक दूसरे के प्रति मत्सर ईर्ष्या भाव वाले होते है। जब कि जैन प्रत्येक द्रव्य को एक दूसरे से कथंचित् भिन्नाभिन्न उत्पाद-व्यय-ध्रुव परिणामीत्व तथा प्रत्येक द्रव्य को भी अपने गुण-पर्याय से भी कथंचित् भिन्नाभिन्न तथा नित्यानित्य स्वरुपी मानते सर्वत्र यथातथ्य भाव में रहते समता समाधि रुप परमात्म पद को प्राप्त करता है। भगवतीजी'५७ तथा अनुयोग सूत्र में द्रव्य के दो भेद उल्लिखित है। कइविहा णं भंते ? दव्वा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा - जीवदव्वा य अजीवदव्वा य। भगवती और अनुयोग सूत्र में गौतमस्वामी भगवान से प्रश्न करते है कि - हे भगवन् ! द्रव्य के कितने भेद है ? भगवान ने कहा - हे गौतम ! द्रव्य के दो भेद है। जीवद्रव्य और अजीव द्रव्य। अजीव द्रव्य के दो भेद है - रूपीअजीवद्रव्य और अरूपीअजीवद्रव्य / पुनः अरूपीअजीवद्रव्य के दस भेद इस प्रकार है - 1. धर्मास्तिकाय, 2. धर्मास्तिकाय के देश, 3. धर्मास्तिकाय.के प्रदेश, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. अधार्मास्तिकाय के देश, 6. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, 7. आकाशास्तिकाय, 8. आकाशास्तिकाय के देश, 9. आकाशास्तिकाय के प्रदेश, 10. काल१५८ भगवती में सभी द्रव्य छः प्रकार से बताये है। कतिविहा णं भंते ! सव्व दव्वा पन्नता / गोयमा! छव्विहा सव्वदव्वा पन्नता, तं जहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए। द्रव्य छः प्रकार के है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल।५९ उत्तराध्ययन सूत्र में छ: द्रव्य की प्ररूपणा की गई तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकायये तीनों द्रव्य एकत्व विशिष्ट संख्यावाले है तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, काल - ये तीनों द्रव्य अनंतानंत है। ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। 160 द्रव्य के सामान्य तथा विशेष गुण भी पाये जाते है। द्रव्य, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् तथा वक्तव्य-अवक्तव्य रूप से भी जाना जाता है। वैशेषिक नैयायिकोंने नव द्रव्य की मान्यता स्वीकारी है जो जैनदर्शन के द्रव्यवाद से सर्वथा भिन्न है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIN ए द्वितीय अध्याय 114