________________ अतः समुचित शक्ति है। जबकि ओघशक्ति में कार्य के दूरवर्ती होती है। अर्थात् परंपरा के कारण को ओघशक्ति कहते है। जैसे कि तृण में घी की शक्ति। . प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक कार्य परिणाम के पूर्व अनंतर कारण रूप जो शक्ति वह समुचित होती है तथा जो शक्ति कार्य परिणाम में परंपरा से कारणरूप हो वह ओघशक्ति है। यद्यपि द्रव्य का कोई भी समय का कोई भी परिणाम (पर्याय) पूर्वोत्तर भाव से तो व्यवहारनय से कार्यकारण उभय स्वरूप है। परंतु निश्चयनय की दृष्टि से तो द्रव्य का कोई भी परिणाम कार्य या कारण रूप नहीं है। वह तो उस समय मात्र ही द्रव्य का परिणाम है, क्योंकि अनादि-अनंत शाश्वत द्रव्य में जिस-जिस समय शुद्ध तथा अशुद्ध कारण शक्ति हेतु सापेक्ष जो-जो परिणाम प्राप्त होते है उस-उस समय में द्रव्य की सद्भूत अवस्था पर्यायरूप होकर द्रव्य से कथंचित् भिन्न तथा अभिन्न होती है। इसलिए यह समझना आवश्यक हो जाता है कि कोई भी द्रव्य का पर्याय आविर्भाव तथा तिरोभाव स्वरूप से नित्यानित्य होता है। उसी प्रकार द्रव्य को भी गुणपर्याय की अभिन्नता से नित्यानित्य प्राप्त होता है। अन्यथा द्रव्य को एकान्त नित्य और पर्याय को एकान्त अनित्य मानने से तो द्रव्य का लक्षण भी घटित नहीं होगा तथा मिथ्याभाव की प्राप्ति होगी। ___कुछ अन्यदर्शनकार द्रव्य-गुण और पर्याय को भिन्न-भिन्न मानते है। वह युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि कभी भी द्रव्य पर्याय रहित नहीं होता है तथा पर्याय द्रव्य से रहित नहीं रह सकता। गुण तो द्रव्य के साथ सहभावी रहते है। अर्थात् द्रव्य तो हमेशा अपने-अपने गुणों और पर्यायों के त्रिकालिक समुदाय रूप है। तभी तत्त्वार्थकार श्री उमास्वाति ने ‘गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' सूत्र सूत्रित किया है। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि द्रव्य अपनी अनेक गुण सत्ता से सदा-काल नित्य होने पर भी विविध स्वरुप से परिणामी होने के कारण अनित्य भी घटित होता है और तभी द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप में लक्षित होता होगा। ____ द्रव्य और पर्याय से गुण भिन्न नहीं है। यदि भिन्न होते तो शास्त्र में ज्ञेय को जानने के लिए ज्ञान स्वरूप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नय की व्याख्या उपलब्ध होती है तो उसके साथ गुणार्थिक नय की व्याख्या भी होनी चाहिए। लेकिन वह तो शास्त्र में कहीं भी नहीं मिलती है। अतः गुण को द्रव्य से तथा पर्याय से अलग स्वतंत्र मानना युक्त नहीं है तथा विशेष यह भी जानने योग्य है कि आत्म द्रव्य के गुण पर्याय में गुण ध्रुवभाव में भी परिणाम पाते है जबकि पुद्गल द्रव्य के वर्णादि गुण तो अध्रुव भाव में परिणाम पाते है। ___गुणों को ही पर्याय का उपादान कारण माने तो भी युक्त नहीं है। क्योंकि फिर तो द्रव्यत्व का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहेगा और इससे तो इस जगत के सभी परिणामों को केवल गुणपर्याय ही मानने पडेंगे। परन्तु ऐसा मानने से तो द्रव्यत्व रुप गुण पर्याय का आधार तत्त्व का ही अपलाप हो जायेगा। जिससे सर्वत्र केवल एकान्तिक और आत्यंतिक क्षणिकता ही प्राप्त होगी। जबकि अनुभव सिद्ध, अविरुद्ध तथा तत्त्वतः द्रव्य नित्य होता है जो त्रिकालिक सम्पूर्ण गुण तथा पर्याय का आधार है। अतः द्रव्य-गुण और पर्याय को कथंचित् भेदाभेदता शास्त्रार्थ से युक्त है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIKI (द्वितीय अध्याय | 113