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________________ टीका ग्रन्थों में उल्लिखित हुआ है। यद्यपि सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो उच्छेद ही है, तथापि हरिभद्र जैसे महान् अनुयोगधरोंने इस विषय की शोध करके इनके सारांशों को समुल्लिखित किये है। अन्य दर्शनों में भी द्रव्य विषयक चर्चा मिलती है। व्याकरण की दृष्टि से द्रव्य की व्युत्पत्ति इस प्रकार उपलब्ध होती है। “द्रु गतौ" धातु से 'द्रवति तांस्तान् स्व पर्यायान् प्राप्नोति मुञ्चति वा इति तद् द्रव्यम्।' द्रव्य उसको कहते है जो द्रवित होता है / उन-उन अपने पर्यायों को प्राप्त भी करता है और छोड़ भी देता है। 'द्रसत्तायाम् - तस्या एव अवयवो विकारो वा इति द्रव्यम्।' अवान्तरसत्तारुपाणि हि द्रव्याणि महासत्ताया अवयवा विकारा वा भवन्ति एव इति भावः।' द्रुधातु सत्ता के अर्थ में भी है। उसका अवयव अथवा विकार द्रव्य कहलाता है। अलग-अलग जो द्रव्य के रूप मिलते है वे महासत्ता के अवयव अथवा विकार होते है। जैसे कि रुप-रसादि गुणों का समुदाय घट वह द्रव्य है। भविष्य में होनेवाले पर्याय की जो योग्यता वह भी द्रव्य है। जैसे - राज बालक भविष्य में युवराजमहाराज बनने के योग्य है। अतः राजबालक रुप में द्रव्य कहलाता है। भूतकाल में भाव पर्याय जिसमें रहे हुए थे वह द्रव्य भूतभाव द्रव्य कहलाता है। जैसे कि घी का आधारभूत घृत घट आज खाली है। तथापि पूर्व में उसमें घी भरा हुआ था। अतः वह घृतघट कहलाता है। वह भी द्रव्य है।१२६ जो भूतकालीन भव्य बना हुआ था / जिसके लिए अनागत की संभावना रहती है। जो वर्तमान में अकिञ्चन है फिर भी वह योग्यता का धारक है तो वह द्रव्य है। क्योंकि योग्यता कभी भी सीमाओं में बंधी हुई नहीं होती है। वह कभी भी प्रगट हो सकती है।१२७ / / आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुयोगवृत्ति,९२८ नन्दीवृत्ति 29 में तथा नन्दीसूत्र'३० में भी निम्नोक्त द्रव्य की परिभाषा मिलती है। 'तत्र द्रवति-गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्य' ___ उन-उन पर्यायों को जो प्राप्त करता है वह द्रव्य कहलाता है। आवश्यकसूत्रावचूर्णि,९३९ पंचास्तिकायवृत्ति 132 और तत्त्वार्थ राजवार्तिक१३३ में द्रव्य की व्याख्या की है। [ द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायोः स्थानमेकरूपं सदापि यत्। स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं मध्य भेदो नतस्य वै॥१३४ गुण और पर्याय का जो आश्रय हो, तीनों काल में जो एकरूप हो, स्थिर हो, अपनी जाति में रहनेवाला हो, परन्तु पर्याय की भाँति जो परावृत्ति को प्राप्त नहीं करता हो, वह द्रव्य कहलाता है। जैसे कि - ज्ञान-दर्शनचारित्र-तप-वीर्य आदि गुण का आधारभूत जीव द्रव्य / रुप, रस, गंध आदि का आश्रयभूत पुद्गल द्रव्य तथा | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII द्वितीय अध्याय | 108)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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