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________________ स्थासं, कोश, कुशल, कपाल घटत्वादि पर्याय का आश्रयस्थान मृद्रव्य जो तीनों काल में स्थिर रहता है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में द्रव्य की भिन्न-भिन्न परिभाषा दी गई है। जैसे कि - 'अनागतपरिणामविशेष प्रतिगृहीताभिमुख्यं द्रव्यं।' भविष्य में परिणामों के प्रति स्वीकार कर लिया है सन्मुखपना जिन्होंने ऐसे द्रव्य कहलाते है। 'यद्भाविपरिणामप्राप्तिं प्रति योग्यता आदधानं तद्र्व्यमित्युच्यते।' जो भविष्य के परिणामों को प्राप्त करने के प्रति अपनी आत्म योग्यता को धारण करनेवाले है वे द्रव्य कहलाते है। 'द्रोष्यते गम्यते गुणे ोष्यति गमिष्यति गुणानिति वा द्रव्यं।' द्रव्य उसे कहते है जिसका गुणों के द्वारा ज्ञान होता रहे वह द्रव्य है। अथवा गुणों से द्रव्य का ज्ञान होनेवाला है अथवा होगा ऐसा अर्थ संभवित है।१३५ पंचास्तिकाय में दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण इस प्रकार किया है - दव्वं सल्लक्खणयं, उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयासयं वा, जंतं भण्णंति सव्वण्ह // 136 इसमें आचार्यश्री ने द्रव्य का लक्षण तीन प्रकार से किया है। जो सत् लक्षणवाला है, उत्पाद-व्ययध्रौव्य युक्त है और गुण-पर्यायों का आश्रय है - उसे सर्वज्ञदेव ने द्रव्य कहा है। टीकाकार दिगम्बराचार्य जयसेन इन तीनों लक्षणों की विशेषता बताते हुए कहते है कि - दव्वं सल्लक्खणयं - द्रव्य का लक्षण सत् है। यह कथन बौद्धों जैसे शिष्यों को समझाने के लिए द्रव्यार्थिक नय से किया है। उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं - द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य सहित है। यह लक्षण सांख्य और नैयायिक जैसे शिष्यों के बोध के लिए पर्यायार्थिक नय से किया गया है। गुणपज्जयासयं वा - द्रव्य गुण पर्यायों का आधारभूत है। यह लक्षण भी सांख्य और नैयायिक जैसे शिष्यों को समझाने के लिए पर्यायार्थिक नय से किया गया है। राजवार्तिक में ऐसा कहा गया है कि जो इन तीनों लक्षणोंवाला हो वह द्रव्य है। ऐसा सर्वज्ञदेव कहते है। उपाध्याय यशोविजयजी अनेकान्तव्यवस्था' प्रकरण में शास्त्रों को सम्मान देते हुए आगमों को आदर देते हुए तथा सिद्धसेन दिवाकर एवं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जैसे आगमज्ञ, महातार्किक महापुरुषों को साक्षीभूत बनाते हुए अपनी बुद्धि-वैभव को विकस्वर करते हुए द्रव्य का लक्षण संलिखित किया है / उन्होंने द्रव्य को धर्म से, धर्मी से, धर्मधर्मी से, मुख्य और गौणभाव से तथा विशेषण और वैशिष्ट्य से घटाया है - ‘वस्तुपर्यायवद् द्रव्यम्'१३७ ___ जो पदार्थ पर्याय के समान परिणत होता है वह द्रव्य है। क्योंकि पर्याय से रहित द्रव्य का रहना असंभवित है। अतः धर्म से धर्मी से और धर्मधर्मी ये जो युक्त हो वह द्रव्य है। अथवा गौण और मुख्य से जो संयुक्त हो वह द्रव्य है एवं द्रव्य विशेषण और वैशिष्ट्य से विशिष्ट होता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII IA द्वितीय अध्याय | 109 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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