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________________ श्रुत्वैवं सकृदेनमीश्वरपरं सांख्यऽक्षपादागमं लोको विस्मयमातनोति न गिरो यावत् स्मरेदार्हतीः किं तावद्वदरीफलेऽपि न मुहुर्माधुर्यमुन्नीयते यावत्पीनरसा रसाद् रसनया द्राक्षा न साक्षात्कृता।१२४ सांख्य और नैयायिकों के ईश्वर परक एक बार भी वचन सुनकर यह जन समुदाय विश्वस्त हो जाता है। जब वही जन समूह तीर्थंकर वाणी का श्रवण करता है और स्मरण बढ़ाता है तो परम विस्मय को प्राप्त करता है। जैसे कि बदरी फल को चखकर मधुरता को प्राप्त कर लेता है वही यदि अपनी जिह्वा से द्राक्ष फल चख लेता है और माधुर्य जिह्वा से गले में उतार लेता है तो बदरी फल को चखना भूल जाता है / वैसे जिनवाणी को जो स्वीकार कर लेता तो सांख्यवादियों के विचारों को नैयायिकों ईश्वरवाद को भूलकर के भी याद नहीं करता है। अंत में आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार यह लोक पञ्चास्तिकायात्मक है साथ में जीवजीवात्मक चराचरात्मक रूप.से भी अपने ग्रन्थों में उजागर किया है। उनका विशाल दृष्टिकोण लोकतत्त्व निर्णय में प्रतिभासित होता है। उसमें उन्होंने लोक के स्वरूप को अनादि निधन कहा है साथ ही ईश्वरीय सत्ता को इसमें किंचित् भी स्थान नहीं दिया गया। इन्होंने लोक को अनादि निधन शाश्वत कहकर जगत्कर्तृत्ववाद का निरास किया है। अर्थात् लोक को किसी ने नहीं बनाया है। यह लोक चौदह रज्जुप्रमाण है। सम्पूर्ण लोक का आकार सुप्रतिष्ठक वज्र के समान है। यह निराश्रय निराधार निरालम्ब रूप से आकाश में प्रतिष्ठित है। फिर भी अपने अपने अस्तित्व से हमेशा सिद्ध है। ऐसी प्रतीति होने में लोक-स्थिति ही कारण है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि के दृष्टिकोण में लोकवाद रहस्य निरापवाद रूप से समुल्लिखित किया गया है। ऐसा मेरा मन्तव्य है। द्रव्यवाद जैन आगमों की द्वादशाङ्गी चारों अनुयोगों में व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत की गई है। जिसमें द्रव्यानुयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। द्रव्यानुयोग ही आत्मवाद, अध्यात्मवाद आदि विषयों में सारगर्भित सत्य का स्पष्टीकरण करता है। दृष्टिवाद के 'अग्गेणीयं' नामक दूसरे पूर्व में द्रव्यानुयोग को वर्णित किया गया है। ऐसी अवधारणा शास्त्रीय परंपराओं में प्रचलित है। नन्दीसूत्र नाम के महामंगल ग्रंथ की टीका में आचार्य हरिभद्र ने इस प्रकार व्याख्यायित किया है - 'वितियं अग्गेणियं तत्थवि सव्वदव्वाण पजवाण य सव्वजीवाजीवविसेसाण य अग्गं परिमाणं वन्निजति त्ति अग्गेणीयं / 125 इस द्वितीय प्रवाद में सभी द्रव्यों एवं पर्यायों का पूर्णतया पर्यालोचन हुआ है। हमारे द्रव्यानुयोग का मूलाधार दृष्टिवाद ही प्रमुख है। और उन दृष्टिवादों के विषयों का विस्तार यत्र-तत्र | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 107)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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