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________________ सृष्टिवाद विषयक जो अन्य दार्शनिकों का दुर्वाद है वह त्याज्य है। क्योंकि वह अप्रामाणिक है। इसलिए हे नाथ ! तुम्हारे शासन में जो रमण करते है उनके उपर आप प्रसन्न रहते है। अर्थात् जगत् का कर्ता, हे प्रभु ! आपने मान्य नहीं किया है। आगमिक अनुसंधानों में ईश्वर कर्तृत्ववाद को अमान्य किया है। जैसे सूत्रकृतांगकार कहते हैइणमन्नं तु अन्नाणं इहमेगेसि आहियं / देवउत्ते अयं लोए बंभ उत्तेति आवरे ईसरेण कडे लोए पहाणाइ तहावरे जीवाजीव समाउत्ते, सुहदुक्खसमन्निए सयंभुणा कडेलोए इति वुत्तं महेसिणा मारेणसंथुआ माया तेणलोए असासए / / 121 सृष्टि विषयक सर्जक स्वीकार करना यह एक महान् अज्ञान है। कुछ लोक यह कहते है कि यह लोक देवकृत है। अथवा ब्रह्मा सर्जित है। अथवा ईश्वरकृत् लोक है। जीव और अजीव से युक्त यह संसार सुखों से और दुःखों से ओतप्रोत है। ऐसा यह जगत स्वयंभू के द्वारा सर्जित हुआ है ऐसा महर्षियों ने कहा है। कामदेव के द्वारा माया प्रशंसनीय हुई है। उस कारण से यह लोक अशाश्वत है। __ललित विस्तरा में आचार्य हरिभद्रसूरि ‘मुत्ताणं-मोअगाणं' पर चर्चा करते हुए कहते है कि जगत के कर्ता को हीन-मध्यम-उत्कृष्ट रूप में जीवों को उत्पन्न करने में क्या लाभ ? क्योंकि वह जगत का कर्ता यदि निरीह है तो फिर इच्छा, संकल्प, द्वेष, मात्सर्य आदि संभव नहीं है। अतः जगत्कर्तृत्व मत को दूषित बतलाते हैं। जगत्कर्तृत्वमते च दोषा:१२२ धर्मसंग्रहणीकार आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि - जो सो अकित्तिमो सो रागादिजुत्तो हवेज रहितो या रहियस्स सेसकरणे पओयणं किंति वत्तव्वं / 123 यदि वह जगत का कर्ता अकृत्रिम है अथवा रागादि युक्त है या रहित है। यदि वह रागादि से रहित है तो किस प्रयोजन से संसार का रचयिता बनता है। बिना प्रयोजन कोई बुद्धिमान कार्य का आरंभ नहीं करता है, तो ऐसा जगत का आरंभ करने का कौनसा प्रिय प्रयोजन उसको इष्ट लगा। ये सारी बातें ईश्वर के कर्तृत्व में अनिष्टकारी लगती है। ___ शास्त्रवार्ता समुच्चयकार आचार्य हरिभद्रसूरि कहते है कि लोक विषयक मत एवं ईश्वर कर्तृत्व अभिमत न्याय सिद्धान्त से मनुष्य स्वीकार कर लेता है। परंतु जब वही व्यक्ति जिनवाणी को यदि स्मृति में ले लेता है तो यह जगत स्वाभाविक है। इसका कोई कर्ता नहीं ऐसा स्वीकार कर लेता है। जैसे बदरी फल के रस को चखकर संतोषित रहनेवाला व्यक्ति तब तक ही प्रसन्न रहता है जब तक विशेष द्राक्षफल का माधुर्य प्राप्त नहीं करता। इसी बात को टीकाकार उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. ने श्लोकरूप से संबद्ध की है - | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI द्वितीय अध्याय | 1060
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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