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________________ को पारलौकिक परमार्थ को एवं ईश्वरीय दायित्वों को दूरदर्शिता से दर्शित करते अर्हद् दर्शन के मौलिक स्वरूप को महत्त्व देते हुए इस ग्रन्थ को गरिमान्वित बनाया है। ज्ञेय-प्रमेय-प्रामाणिक प्रकारों को प्रस्तुत करने में आचार्य .हरिभद्रसूरि एक अप्रतिम विद्यावान् दार्शनिक चरितार्थ हुए है। उनका दार्शनिक मति-मन्थन सर्वथा सम्मान्य होकर जिन शासन की जय-जयकार कर रहा है। यद्यपि सम्पूर्ण दर्शन तथ्यों को आलोडित कर अपने आपमें एक धैरेय धीमान् रूप से जैनी महत्ता को मूल्यवती बनाया है। षड्दर्शन समुच्चय आचार्य हरिभद्रसूरि की अनुपम कृति है। इसके टीकाकार आचार्य गुणरत्नसूरि एक समयज्ञ सुधी है। जिन्होंने षड्दर्शन समुच्चय की टीका में लोक के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए इस प्रकार कहा है - 'लोकस्वरूपेऽप्यनेके वादिनोऽनेकधा विप्रवदन्ते'११९ लोक के स्वरूप में ही अनेकों वादी अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करते है। कोई इस जगत की उत्पति नारीश्वर (माहेश्वर.) से मानते है, कोई सोम और अग्नि से संसार की सृष्टि कहते है। वैशेषिक षट् पदार्थी रूप ही जगत मानते है। कोई जगत की उत्पत्ति ब्रह्मा से कहते है। कोई दक्ष प्रजापति कृत जगत को बतलाते है। कोई ब्रह्मादि त्रिमूर्ति से सृष्टि की उत्पत्ति कहते है। वैष्णव विष्णु से जगत की सृष्टि मानते है। पौराणिक कहते है - विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा उत्पन्न होते है। ब्रह्माजी अदिति आदि जगन्माताओं की सृष्टि करते है। इन जगन्माताओं से संसार की सृष्टि होती है। कोई वर्ण व्यवस्था से रहित इस वर्णशून्य जगत को ब्रह्मा ने चतुर्वर्णमय / बनाया है। कोई संसार को कालकृत कहते है। कोई उसे पृथ्वी आदि अष्टमूर्तिवाले ईश्वर के द्वारा रचा हुआ कहते है। कोई ब्रह्मा के मुख आदि से ब्राह्मण आदि की उत्पत्ति मानते है। सांख्य इस सृष्टि को प्रकृतिकृत मानते है। बौद्ध इस जगत को क्षणिक विज्ञानरूप कहते है। ब्रह्म अद्वैतवादी जगत को एक जीव रूप कहते है, तो कोई वादी इसे अनेक जीवरूप भी मानते है। कोई इसे पूर्व कर्मों से निष्पन्न कहते है तो कोई स्वभाव से उत्पन्न बताते है। कोई अक्षर से समुत्पन्न भूतों द्वारा इस जगत की उत्पत्ति बताते है। कोई इसे अण्ड से उत्पन्न बताते है। आश्रमी इसे * अहेतुक कहते है। पूरण जगत को नियतिजन्य मानते है। पराशर इसे परिणामजन्य कहते है। कोई इसे यादृच्छिक अनियत हेतु मानते है। इस प्रकार अनेकवादि इसे अनेकरूप से मानते है। तुरूष्क गोस्वामी नाम के दिव्य पुरुष जगत की सृष्टि मानते है। इस प्रकार लोक विषयक विभिन्न मान्यताएँ है। __षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने सभी दर्शनवादियों की विचार धाराओं को सम्मिलित कर प्रत्येक को निरस्त करने का प्रयास जैनमत में किया है। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने वीतराग स्तोत्र' में जगत कर्तृत्ववाद का निरास करते हुए यह कहा है - सृष्टिवादकुहेवाक मुन्मुच्येत्यप्रमाणकम्। त्वच्छासने रमन्ते ते, येषां नाथ प्रसीदसि // 120 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / द्वितीय अध्याय | | 105
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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