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________________ अवबोध जनक उद्गार अभिव्यक्त कर सम्पूर्ण विश्व को यह संदेश दिया कि यह लोकस्थिति अनादि है और इसका कोई सृष्टा नहीं है। ऐसा समुल्लेख 'लोकतत्त्व निर्णय' में आचार्यश्री ने किया है - गुणवृद्धिहानिचित्रा, कैश्चिन्न मही कृता न लोकश्च / इति सर्वमिदं प्राहुः, त्रिष्वपि लोकेषु सर्वविदः // 117 गुणों की हानि और वृद्धि बडी ही आश्चर्यमय है। किन्ही व्यक्तियों से यह पृथ्वी न सर्जित हुई, न यह लोक निर्मित हुआ है। इस प्रकार सभी पदार्थों के विषय में तीनों लोकों में सर्वज्ञता का यह कथन प्रचलित है। इस प्रकार यह निरन्तर लोकचक्र घूमता रहता है। फिर भी अनादि निधन है। इसमें ईश्वरीय सत्ता को कोई स्थान नहीं है। ऐसा महामन्तव्य आ. हरिभद्र सूरि का है। आचार्य हरिभद्रसूरि का दृढ़ विनिश्चय विवेकजन्य है। उन्होंने प्रभुत्व को कर्मजन्य कथित किया है न कि गुणयुक्त। कर्मजनितं प्रभुत्वं, संसारे क्षेत्रतश्च तद्भिन्नम्। प्रभुरेकस्तनुरहितः कर्ता च न विद्यते लोके / / संसार में कर्मजन्य प्रभुत्व क्षेत्र की अपेक्षा से अनेक प्रकार से संभवित है। लेकिन उस प्रभुत्व से भिन्न शरीर से रहित प्रभु एक ही है जो कि जगत के कर्ता नहीं है। यदि ईश्वर को संसार के राग में रचयिता स्वीकार कर लेते है तो वह अवश्य ही कर्मबन्ध का कर्ता हो जाता है। यदि उसको मुक्त मान लेते है तो कर्मबन्ध रहित वीतराग हो जाता है तो फिर वह जगत का कर्ता किस प्रकार से स्वीकार किया जा सकता है। आचार्य हरिभद्रसूरि की दृष्टि में ईश्वर मुक्त है, वीतराग है और उसमें कर्ता के कोई भाव रहते ही नहीं है। ऐसा समुल्लेख उन्होंने लोकतत्त्व निर्णय में किया है - मुक्तो न करोति जगन्न कर्मणा बध्यते हि वीतराग। रागादियुतः सतनु-निर्बध्यते कर्मणाऽवश्यम्॥११८ जो कर्मों से मुक्त वह जगत सृष्टि नहीं करता है। क्योंकि निश्चित वीतराग कर्मों से बाधित नहीं होता है। जो रागादिभावों से युक्त शरीरवाला होता है वह अवश्य कर्मों से बांधा जाता है। अर्थात् रागादि जीव ही कर्म बन्धनों का कर्ता है। और जो कर्मबन्धनों का कर्ता है वह जगत्कर्ता कैसे हो सकता है ? इस तरह ईश्वर विषयक विवेचनाएँ हमें लोकतत्त्व निर्णय में भिन्न-भिन्न रूप से उपलब्ध होती है। अतः ईश्वर कर्तृत्व जगत के मन्तव्य में महामहिम हरिभद्र एक क्रान्तिकारीरूप में अपना आत्म-पाण्डित्य प्रस्तुत कर परमबोधि के धनी हो जाते है। अतः उनके विचारों को विधिवत् लिखित करने का मैंने लाभ उठाया है जो पाठकों को जैन-दर्शन का तत्त्वबोध देता रहेगा और अन्यदर्शनों का परिचय मिलता रहेगा। लोक-तत्त्व निर्णय में आचार्य हरिभद्र एक अद्वितीय अनुपम रूप से उपस्थित होकर लौकिक धारणाओं | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIII IA द्वितीय अध्याय | 104)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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