SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शून्यरूप से स्वीकारा है। सर्वज्ञशासन में जगत को शाश्वत क्रियात्मक एवं अशून्य स्वीकारा गया है। अतः केवल विज्ञानमय एवं शून्य संभवित नहीं है। जगत के विषय में कुछ ऐसी विवेचनाएँ मिलती है। कोई पुरुष से उत्पन्न जगत को मानता है। कोई दैव रचित कहता है। कोई ब्रह्मा में से सर्जित कहते है। कोई अंडे में से उत्पत्ति मानते है। कुछ लोक स्वाधीन स्वरूप में स्वीकार करते है। कुछ पाँच भूतों के विकार में उत्पत्ति मानते है और कोई इसे अनेक रूपवाला कहते है। . उपर्युक्त सारी विवेचनाएँ जैन दर्शन में अमान्य रही है। आचार्य हरिभद्रसूरि जैन मान्यताओं को मुख्यतया से व्यक्त करते हुए ‘लोकतत्त्व-निर्णय' में सारभूत सत्य को कहते रहे है। विष्णु को सर्वव्यापक माननेवालों की इस सूक्ति को आचार्य हरिभद्रसूरिने लोकतत्त्व निर्णय में संल्लिखित कर सम्पूर्ण जगत को विष्णुमय प्रतिपादित किया है। जले विष्णु स्थले विष्णुराकाशे विष्णुमालिनि। विष्णुमालाकुले लोके, नास्ति किंचिदवैष्णवम् / / 115 जैन दर्शन किसी देव विशेष को सर्वत्र व्यापकरूप से स्वीकार करने में समर्थ नहीं है। प्रलयकाल में जब सारा विश्व जलमय बन जाता है। उस समय अचिंत्य आत्मा विभु सोते हुए महान् तप करते है और उनकी नाभि कमल से दण्ड-कमण्डल, यज्ञोपवित, मृगचर्म और वस्त्र सहित भगवान ब्रह्मा वहाँ पर उत्पन्न होते है और उन्होंने जगत की माताओं का सर्जन किया। देव समुदायों की माता अदिति, असुरों की माता दिति, मनुष्यो की माता मनुरुषि, सभी जाति के पक्षीओं की माता विनता, सर्पो की माता कद्रू, नाग जाती के सों की माता सुलसा, पशुओं की माता सुरभि और सभी धान्यादिक बीजों की माता पृथ्वी को जन्म दिया / ऐसी मान्यता पुराणों में मिलती है। सृष्टि विषयक मान्यताएँ परस्पर विरुद्ध मिलती है और युक्ति विहीन पायी जाती है। अतः उसका 'परित्याग ही समयोचित है। ऐसा आचार्य हरिभद्रसूरि का कथन है। एवं विचार्यमाणाः, सृष्टिविशेषाः परस्परविरुद्धाः। हरिहरविचारतुल्या युक्तिविहीनाः परित्याज्याः॥११६ इस स्वाभाविक लोक के विषय में वैदिक मतावलंबी विज्ञजन सृष्टिकर्ता ईश्वर को प्राथमिकता देते है। उसके वशवर्ती यह संसार है और सारे कार्य-कलाप संचालित उसी से होते है। ऐसी धारणा धरती पर शताब्दियों से प्रचलित है। क्योंकि उस जगत के कर्ता ईश्वर को मान लेने पर मानवीय मान्यताएँ मूलतः समाप्त हो जाती है। परंतु प्रबुद्ध प्राज्ञजन अपने मति-मन्थन से एक महत्त्वपूर्ण निर्देश देते है कि सम्पूर्ण संसार के यदि कोई रचयिता है तो फिर उस (ईश्वर) का सर्जक कौन ? यह शंका, अनवस्था दोष में ढल जाती है। अतः ईश्वरीय सर्जन शंका रहित नहीं बनता / अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने सम्पूर्ण भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का अवगाहन कर उत्तम [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व Vaa द्वितीय अध्याय | 1037
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy