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________________ जैसे कि - भंते ! त्ति भयवं गोयमे समणं जाव एवं वयासीः कइविहा णं भंते ! लोयट्ठिती पन्नता / गोयमा ! अट्ठविहा लोयट्टिती पन्नता।६४ हे गौतम ! आठ प्रकार की लोक स्थिति है। वह इस प्रकार - वायु को आकाश ने, उदधि को वायु ने, पृथ्वी को उदधि ने, त्रस जीव और स्थावर जीव को पृथ्वीने, अजीव जड पदार्थों को जीव ने, जीव को कर्मों ने धारण कर रखा है। तथा अजीवों को जीवोने एकत्रित करके रखा है और जीवों को कर्मों ने संग्रहित करके रखा है। स्थानांग६५ में लोकस्थिति तीन, चार, छः, आठ और दस प्रकार की बताई है। लोक किसे कहते है ? इस विषय में आगमोक्त चिन्तन प्रस्तुत किया जाता है। स्थानांग में जीव-अजीव स्वरुप लोक कहा है - 'के अयं लोगे ? जीवच्चेव अजीवच्चेव।'६६ लोक किसे कहना? जीव और अजीव यह लोक है। आ. हरिभद्रसूरि अपनी उदारता को प्रगट करते हुए शास्त्रवार्ता समुच्चय में कहते है कि शास्त्रों के ज्ञाता महापुरुषों ने जगत को जीव-अजीव स्वरूप कहा है। 'अन्ये त्वाहुनायेव जीवाजीवात्मकं जगत्'६७ जीव-अंजीव समुदायात्मक जगत है ऐसा शास्त्रकृतश्रमा कहते है। नन्दीवृत्ति८ तथा ध्यानशतक वृत्ति में चराचर को जगत कहा है। 'जगन्ति जङ्गमान्याहर्जगद ज्ञेयं चराचरम।' अर्थात् जिसमें प्रति समय पदार्थ नये-नये पर्यायों को प्राप्त करने से जंगम है। इसे जगत कहते है। वह चर और अचर दो प्रकार से जानना / मुक्त जीवों, आकाश, रत्नप्रभादि पृथ्वीओं, मेरु आदि पर्वतों, भवनों, विमानों आदि अचर है, स्थिर है। शेष संसारी जीव, तन, धन आदि अस्थिर चर है। लेकिन भगवती में पञ्चास्तिकायात्मक लोक कहा है - किमियं भंते ! लोए त्ति पवुच्चइ ? गोयमा पंचत्थिकाया एस णं पवत्तिए लोए त्ति पवुच्चइ।७० आचार्य हरिभद्रसूरि ने अनादि विंशिका में पञ्चास्तिकाय लोक कहा है - पंचत्थिकायमइओ अणाइमं वट्टए इमो लोगो। न परमपुरिसाइकओ पमाणमित्थं च वयणं तु॥ पञ्चास्तिकायमय यह लोक अनादि से रहा हुआ है और परमपुरुष ऐसे ईश्वर द्वारा रचित नहीं है और इस विषय में सर्वज्ञ का वचन आगम प्रमाण है। लोक प्रकाश में पञ्चास्तिकाय स्वरुप द्रव्यलोक कहा है - | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII / द्वितीय अध्याय | 95 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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