________________ सभी मिलकर चौदह रज्जु प्रमाण होता है। तथा बृहत्संग्रहणी में लोक के स्वरूप की गाथा इस प्रकार है - अहभाग सगपुढवीसु रज्जु इक्किक तह य सोहम्मे। माहिद लंत सहस्रारऽच्चुय गेविज्ज लोगंते॥५५ 'अयं च आवश्यक नियुक्तिचूर्णि संग्रहयाद्यभिप्रायः।' परंतु योगशास्त्रवृत्ति के अभिप्राय से तो समभूतल रुचक से सौधर्मान्त तक डेढ रज्जु, माहेन्द्र तक ढाई, ब्रह्मान्त तक तीन, सहस्त्रार तक चार, अच्युत के अन्त में पांच, ग्रैवेयक के अन्त में छः और लोक के अन्त में सात रज्जु होता है। ___भगवती आदि में तो धर्म-रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असंख्य योजन के बाद लोकमध्य है ऐसा कहा है। उनके आधार से तो वहाँ सात राज पूर्ण होते है। अतः वहाँ से ऊर्ध्व लोक की गणना प्रारंभ होती है। तीनों लोक में मध्यम लोक का परमर्श बना रहता है। जीवाभिगम सूत्र में सौधर्म, ईशान आदि ‘सूत्र व्याख्यान' में बहुसमभूभाग से ऊपर चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं को छोड़कर क्रोड असंख्यात योजन के बाद डेढ रज्जु होता है ऐसा कहा है। लोकनालिस्तव में भी सौधर्म देवलोक तक डेढ, माहेन्द्र तक ढाई, सहस्रार तक चार, अच्युत तक पाँच और लोकान्त में सात रज्जु होते है। तत्पश्चात् अलोक प्रारंभ होता है। ___अनुयोगवृत्ति,५७ अनुयोग मलधारीयवृत्ति,८ लोकप्रकाश तथा शान्तसुधारस में भी इसका स्वरूप मिलता है। इस चौदह राजलोक के मध्य में त्रसजीवों के प्राधान्यवाली चौदह राज दीर्घ एक राज विस्तारवाली त्रसनाडी आयी हुई है। जिसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों तथा तीनों लोक का समावेश होता है। इसके बहार लोकक्षेत्र में केवल एकेन्द्रिय जीव ही है। लोकस्थिति - यह लोक शाश्वत अनादि निधन है। किसी ने इसको आधार नहीं दिया। आश्रय और आधार के बिना आकाश में निरालम्ब रहा हुआ है। न किसी ने इसको बनाया है फिर भी अपने अस्तित्व में स्वयं सिद्ध है।६१ लोकप्रकाश में भी यही कहा है।६२ ___ इस विषय में यह विशेष समझने योग्य है कि वायु ने जल को धारण कर रखा है। जिससे वह इधर-उधर गमन नहीं कर सकता। जलने पृथ्वी को आश्रय दिया, जिससे जल भी स्पन्दन नहीं करता न पृथ्वी ही उस जल से पिघलती है। लेकिन लोक का आधार कोई नहीं है। वह आत्म प्रतिष्ठित है। अर्थात् अपने ही आधार पर है। केवल आकाश में ठहरा हुआ है। ऐसा होने में लोकस्थिति अवस्थान ही कारण है। यह लोक का सन्निवेश अनादि है और यह अनादिता द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से है। क्योंकि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से लोक सादि भी है। अतएव आगम में इसको कथंचित् अनादि और कथंचित् सादि भी बताया है तथा ऐसा सन्निवेश होने में सिवाय स्वभाव के और कोई कारण नहीं है।६३ भगवती में भी गौतमस्वामी ने प्रश्न किया है कि - हे भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की है.? आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII IIIIA द्वितीय अध्याय | 94 )