________________ एकः पंचास्तिकाय द्रव्यतो लोक इष्यते।७२ इसी प्रकार दशवैकालिकवृत्ति,७३ ध्यानशतकवृत्ति, अनुयोगमलधारीयवृत्ति,५ तत्त्वार्थ टीका,७६ षड्दर्शनसमुच्चय, ललितविस्तरावृत्ति, ध्यानशतक,७९ तत्त्वार्थ भाष्य आदि ग्रन्थों में पञ्चास्तिकायात्मक लोक कहा है। षड्दर्शन समुच्चय की टीका में षड्द्रव्यात्मक लोक भी कहा है'ये तु कालं द्रव्यमिच्छन्ति, तन्मते षड्द्रव्यात्मको लोकः।'८१ जो आचार्य काल को स्वतन्त्र छट्ठा द्रव्य मानते है, उनके मतानुसार लोक में छहों ही द्रव्य पाये जाते है। अतएव लोक षड्द्रव्यात्मक है। जैन शास्त्र में जीव और अजीव तथा पञ्चास्तिकायमय आदि लोक कहा है। जब कि अंगुत्तर निकाय में भगवान बुद्ध ने पाँच कामगुण रूप रसादि ये ही लोक है और कहा है कि इन पांच काम को जो त्याग करता है वह लोक के अंत भाग में पहुँच जाता है।८२ आगम ग्रन्थों में जहाँ लोक को अखण्ड लोक बताया है, अर्थात् लोक एक ही है तो दूसरी तरफ उसी को अनेक भेद-प्रभेद से भी अभिव्यंजित किया है। जैसे कि - स्थानांग में ‘एगे लोए' यह कहकर लोक एक है यह सूचित किया तथा स्थानांग में लोक के तीन भेद भी बताये है - तिविहे लोगे पन्नते तं - णाणलोगे, ठवणलोगे, दव्वलोगे तिविहे लोगे पन्नते तं - णाणलोगे, दंसणलोगे, चारित्तलोगे / तिविहे लोगे पन्नते तं - उद्धलोगे, अहोलोगे, तिरियलोगे / 83 . . (1) नामलोक (2) स्थापनालोक (3) द्रव्यलोक (1) ज्ञानलोक (2) दर्शनलोक (3) चारित्रलोक (1) ऊर्ध्वलोक (2) अधोलोक (3) तिर्यग्लोक ऊर्ध्वादिभेद से लोक के तीन भेद भगवतीजी,४ तत्त्वार्थभाष्य,५ लोकप्रकाश,८६ ध्यानशतक,७ शान्तसुधारस में भी बताये है। श्रुतमेधावी आ. हरिभद्रकृत अनुयोगवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति, ध्यानशतकवृत्ति में भी ऊर्ध्वाधिभेद से लोक के तीन भेद समुल्लिखित किये है। वह इस प्रकार है - क्षेत्रविभागेन त्रिविधः त्रिप्रकार अधस्तिर्यगूर्ध्वचेति दर्शयिष्यामः क्षेत्रलोकमधिकृत्याह, त्रिविधं त्रिप्रकारं अधोलोकभेदादि'। प्रकारन्तर से भगवती,२ स्थानांग तथा लोकप्रकाश में चार प्रकार का लोक भी बताया है। (1) द्रव्यलोक (2) क्षेत्रलोक (3) काललोक (4) भावलोक। आवश्यक नियुक्ति५ (शिष्यहिताटीका), स्थानांग'६ तथा ध्यानशतकवृत्ति में आठ प्रकार के.लोक [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIK द्वितीय अध्याय 96