________________ - "अणोरणीयान् महतो महीयान् / ' 31 वह सत् स्वरुप अत्यंत अल्प परमाणु से भी अल्पतर है और महान् से भी महत्तम है। ऐसी वैदिक चर्चाएँ सत् के विषय में चर्चित मिलती है। अतः सत् को सिद्धान्त देने में सभी महर्षि मनीषी एकमत है और उस सत् की समय-समय युगानुरूप परिभाषाएँ होती रही है। इस परिभाषाओं के परिवेश में यह सत्प्रवाद श्रद्धा का विषय बन गया। समादरणीय रूप से सदाचार में ढल गया है और समाज के अंगों में साहित्य के अवयवों में चित्रित हुआ। तथागत बुद्ध के विचारों ने भी सत् को एक अन्यदृष्टि से स्वीकृत कर अपने जीवन में स्थान दिया, हमारी सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति ने सत् का समर्थन किया और श्रद्धेय रूप देकर सदाचार का सुअंग बनाया। पौराणिक पुरोधा महर्षि व्यास ने अपनी पुरातनी पुराण प्रणाली में सत् का ऐसा उल्लेख कियानित्यं विनाशरहितं नश्वरं प्राकृतं सदा।३२ जो विनाश रहित है वही नित्य है / जो नित्य बना है वही सत्स्वरूप है और जो अनित्य है वह नाशवान् है। इस प्रकार सत् एक अविनाशी अव्यय तत्त्व है। उपरोक्त सत् विषयक चिन्तन की धारा में सांख्य, नैयायिक और वैशेषिक दर्शनकार सत्कार्यवादी है, उनकी मान्यता यह है कि पूर्ववर्ती कारण द्रव्य है उसमें कार्य सत्तागत रुप से अवस्थित रहता है। जैसे कि मृत्पिंड में कार्य सत् है क्योंकि जो मृत्पिंड है वही घट रूप में परिणत होता है। ‘स एव अन्यथा भवति' यह सिद्धान्त सत्कार्यवादी सांख्यादिकों का है। इसी प्रकार ‘स एव न भवति' यह सिद्धान्त क्षणिकवादी बौद्धों का है। ये वस्तु को क्षणमात्र ही स्थित मानते है। दूसरे क्षण में सर्वथा असत् ऐसी अपूर्व वस्तु उत्पन्न होती है। अतः ये असत्कार्यवादी है। - परन्तु उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' यह द्रव्यव्यवस्था का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। क्योंकि उपनिषद्, वेदान्त, सांख्य, योग आदि दर्शनों द्वारा स्वीकृत आत्मा को एकान्त रूप से कूटस्थ नित्य माना जाए तो उसका जो स्वभाव है उसमें ही वह अवस्थित रहेगा। जिससे उसमें कृतविनाश, कृतागम आदि दोष उपस्थित होंगे। क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा तो अकर्ता है, अबद्ध है, किन्तु व्यवहार में व्यक्ति शुभाशुभ क्रियाएँ करता हुआ दृष्टिगोचर होता है और प्रायः सभी धर्मों में बन्धन से मुक्त होने के लिए व्रत, नियम, तप, जप आदि निर्दिष्ट साधनाएँ निष्फल जायेगी तथा निम्नोक्त आगम वचन के साथ भी विरोध आयेगा - अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रह यमाः।३३ शौच संतोष तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।४ अब आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर आगम के वचन, वचनमात्र रह जायेंगे। आत्मा के अकर्ता होने के कारण मुक्ति-प्राप्ति के लिए की गई समस्त साधना निष्फल होगी, तथा संसार और मुक्ति में कुछ भी भेद नहीं होगा। क्योंकि कूटस्थ आत्मवाद के अनुसार आत्मा परिवर्तन से परे है। अतः सिद्ध होता है कि एकान्त ध्रौव्य नहीं है। उत्पाद और व्ययात्मक भी है। अतएव देव, मनुष्य, सिद्ध, संसारी अवस्थाएँ कल्पनातीत नहीं है, परन्तु | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / TA द्वितीय अध्याय | 89 ]