________________ प्रतीयमान होने पर भी सत् नहीं है। नैयायिकों का सत् लक्षण - 'किमिदं कार्यत्वं नाम। स्वकारणसत्तासम्बन्धः तेन सत्ता कार्यमिति व्यवहारात्।'२७ सत्ता का सम्बन्ध रूप सत्त्व का लक्षण तथा प्रश्न-वार्तिक में निर्दिष्ट अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत्'२८ यह बौद्ध सम्मत सत् का लक्षण है। इन दोनों में दूषण प्राप्त होते है। वह इस प्रकार - इन लक्षणों में सत्ता सम्बन्ध सत् पदार्थों में माना जाय या असत् पदार्थों में इत्यादि तथा अर्थक्रिया में सत्ता यदि अन्य अर्थक्रिया से मानी जाय तो अनवस्था यदि अर्थक्रिया स्वतः सत् हंतो पदार्थ भी स्वतः सत् हो जाए। बौद्ध वस्तु को क्षणमात्रस्थायी मानते है। फिर भी उसमें सहसा उत्पाद-व्यय-ध्रुव का अभ्युपगम हो जाता है। क्योंकि उपरोक्त तीनों में से एक का भी अभाव होने पर क्षणस्थायित्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि- घट को क्षणमात्रस्थायि कहा तो वह तत्क्षण अस्तित्व प्राप्त करने से उत्पाद उत्तरक्षण में नष्ट होने से व्यय तथा तत्क्षण अवस्थित होने से ध्रुवरुप सिद्ध होता है। अतः तदनुसार वस्तु को अनिच्छा से भी त्रयात्मक मानना अनिवार्य है। महान् श्रुतधर, न्यायवेत्ता लघुहरिभद्र महोपाध्याय यशोविजयजी अपनी मति-वैभवता को विकस्वर करते हुए उत्पादादि सिद्धि नामधेयं (द्वात्रिंशिका) ग्रन्थ की टीका में यह स्पष्ट कथन किया कि सत् वस्तु को सभी वादि अनिंदनीय रुप से मानते है। यत्सत्वस्तु' इति सर्वैरपि वादिभिरविगानेन प्रतीतमिति।' लेकिन सत् विषयक लक्षण सभी का भिन्न-भिन्न है। जैसे कि - ‘अर्थक्रियाकारित्वं सत्त्वम्' इति सौगताः। ‘सत्ताख्यपर-सामान्य सत्त्वम्' इति नैयायिकाः, पुरुषस्य चैतन्यरूपत्वं तदन्येषां त्रिगुणात्मकत्वं सत्त्वम् इति कापिलाः। सत्त्वं त्रिविधं पारमार्थिक व्यवहारिकं प्रातिभासिकं च इति वेदान्तिः।२८ ____ न्याय-वैशेषिक-वेदान्त-बौद्ध-मीमांसक के द्वारा किये हुए सत्त्व के लक्षण का उपाध्यायजी ने अपनी तर्क युक्त सूक्तियों से स्वोपज्ञ टीका में खंडन किया है तथा त्रिकालाबाधित तथा अनन्त तीर्थंकर प्रतिपादित 'तीर्थंकरोपदिष्ट' के प्रस्ताव से मीमांसक मान्य वेद के अपौरुषेयत्ववाद का खंडन करते हुए प्रसंगानुप्रसंग अनेक प्रौढयुक्तियों से पौरुषेयत्ववाद का समर्थन तथा सर्वज्ञगदितागम ही प्रामाण्य सिद्ध है। उन केवलज्ञानियों से उपदिष्ट ‘उत्पादादित्रययोगित्वं सत्त्वम्'२९ लक्षण त्रिकाल अबाधित है। सत् विषयक चिन्तन मन्थन वैदिक साहित्य में समुपलब्ध होता है। ऋग्वेद का ऐसा सूक्त है जो अपने साम से ही चर्चित है। वहाँ पर इस प्रकार का एक वाक्य मिलता है “ना सदासीन्नो सदासीत्तदानीं / "30 एक समय ऐसा था जहाँ सत् को भी स्पष्ट नहीं किया और असत् को भी अभिव्यक्त नहीं किया। इतना अवश्य है कि सत् सत्ता का विवरण वैदिक साहित्य ने भी स्वीकृत किया है। अतः सत् को स्पष्टतया आर्षकालीन वाङ्गमय अभिव्यक्त करता है। उत्तरकालीन उपनिषद साहित्य में भी ब्रह्म सत्ता को लेकर कठोपनिषद् में ऐसा उल्लेख मिलता है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII य अध्याय 88