________________ न चानुगतव्यावृत्तवस्तुव्यतिरेकेण द्वयाकारा बुद्धिर्घटते नहि विषय व्यतिरेकेण प्रतीतिरुत्पद्यते।२४ सत् को बुद्धिग्राह्य और प्रतीतिग्राह्य बनाने के लिए ऐसी कोई असामान्य विचारों की विश्वासस्थली रचनी होगी जिससे वह सत् सार्वभौम रुप से सुप्रतिष्ठित बन जाये, आचार्य सिद्धसेन एवं आचार्य अभयदेव इन दोनों महापुरुषों ने सत् को समग्ररुप से बुद्धि के विषय में ढालने का प्रयास किया। वह बौद्धिक प्रयास बढ़ता हुआ बहुमुखी बनकर बहुश्रुत रूप से एक महान् ज्ञान का अंग बन गया। ऐसे ज्ञान के अंग को सत् रुप से रुपान्तरित करने का बहतर प्रयास जैन दार्शनिकों का रहा है। अन्यान्य दार्शनिकों ने उस सत् स्वरुप को सर्वांगीणतया आत्मसात् नहीं किया परन्तु जैन दार्शनिक धाराने उसको वाङ्गमयी वसुमति पर कल्पतरु रूप से कल्पित कर कीर्तिमान बनाया है। वही सत् प्रज्ञान का केन्द्रबिन्दु बना, जिसको हमारे हितैषी आचार्य हरिभद्र सूरि ने उसको अपना आत्म विषय चुना और ग्रन्थों में आलेखित किया। ध्यानशतकवृत्ति में धर्मास्तिकाय आदि को उत्पाद, व्यय, ध्रुव से घटाते हुए कहा है सर्वव्यक्तिषु नियतं क्षणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेष। सत्योश्चित्यपचित्योराकृतिजाति व्यवस्थानात् / / 25 प्रत्येक वस्तु व्यक्ति में समय-समय निश्चित प्रकार की विभिन्नता आती है फिर भी उस व्यक्ति में अनेक व्यक्तिता का बोध नहीं होता, व्यक्तिता एक ही है, क्योंकि उसमें चय-उपचय रूप विभिन्नता आने पर भी आकार और जाति ज्यों की त्यों व्यवस्थित रहती है अथवा आकार और जाति की स्वतंत्र व्यवस्था है। अतः आकार में परिवर्तन होने पर भी जाति परिवर्तित नहीं होती है। अन्यदर्शन में सत् का स्वरूप - महोपाध्याय यशोविजयजी कृत नयरहस्य में अन्यदर्शनकृत् सत् का लक्षण इस प्रकार संदर्शित है। ‘सदविशिष्टमेव सर्वं' 26 'ब्रह्माद्वैतवादि श्री हर्ष' ब्रह्म को सत् स्वरूप मानते है। क्योंकि इनके मतानुसार ब्रह्म को छोड़कर अन्य किसी को नित्य नहीं स्वीकारा गया है / समवाय एवं जाति नामका पदार्थ भी इनको मान्य नहीं। अतः 'अर्थक्रियाकारित्वं सत्त्वम्' यह बौद्ध सम्मत लक्षण भी अमान्य है, क्योंकि इनके मत में ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, निर्धर्मक, निर्विशेष है। शुद्ध ब्रह्म पुष्कर पलाश के समान निर्लेप है। अतः उनमें अर्थ-क्रिया सम्भवित नहीं हो सकती। अतः बौद्धमान्य सत् का लक्षण एवं जैन-दर्शन मान्य सत् का लक्षण इनको सम्मत नहीं है। ये लोग तो 'त्रिकालाबाध्यत्वरुप सत्त्व' जिस वस्तु का तीनों कालों में से किसी भी काल में किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं होता है। वही वस्तु सत् है और ऐसी वस्तु केवल ब्रह्म ही है। ____ ब्रह्म साक्षात् होने पर भी घट-पटादि प्रपञ्च का बाध हो जाता है। अतः घट-पटादि प्रत्यक्ष अनुभव होने पर भी वे सत् नहीं है ऐसी इनकी मान्यता है। दूसरी युक्ति यह भी है कि जो पदार्थ सर्वत्र अनुवर्तमान होता है वह सत् है जो व्यावर्त्तमान होता है वह आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIM LILA द्वितीय अध्याय | 87 !