________________ प्रमाण सिद्ध है। इसी प्रकार अनित्यवाद के समर्थक चार्वाक और बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा में नित्य का अभाव या क्षणभंगुर माना जाए तो सत् के अभाव का प्रसंग आ जाता है। क्योंकि आत्मा को अनित्य या क्षणिक माना जाए तो बन्धन मोक्ष की व्यवस्था घटित नहीं होती है। अनित्य आत्मवाद के अनुसार प्रतिक्षण परिवर्तन होता है तो फिर बन्धन और मोक्ष किसका होगा? बन्धन और मोक्ष के बीच स्थायी सत्ता के अभाव में बन्धन और मोक्ष की कल्पना करना ही व्यर्थ है। जहाँ एक ओर बौद्ध स्थायी सत्ता को अस्वीकार करता है वहीं दूसरी ओर बन्ध-मोक्ष पुनर्जन्म आदि अवधारणा को स्वीकार करता है। किन्तु यह तो वदतोव्याघात जैसी परस्पर विरुद्ध बात है। . अनित्य आत्मवाद का खण्डन कुमारिल शंकराचार्य जयन्तभट्ट तथा मल्लिसेन आदि ने भी किया है। इसके अतिरिक्त आप्त मीमांसा एवं युक्त्यानुशासन में भी अनित्यवाद पर आक्षेप किये गये है। असत् कार्यवादी बौद्ध की असत् ऐसी अपूर्व वस्तु उत्पन्न होती, यह मान्यता भी बराबर नहीं है। क्योंकि द्रव्यव्यवस्था का यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि किसी असत् का अर्थात् नूतन सत् का उत्पाद नहीं होता और न जो वर्तमान सत् है उसका सर्वथा विनाश ही है। जैसा आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है - ‘भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभाव चेव उप्पादो।' 35 अथवा ‘एव सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।'३६ अर्थात् अभाव या असत् का उत्पाद नहीं होता और न भाव सत् का विनाश ही। यही बात गीता में कही है - 'नासतो विधत्ते भावो नाभावो विद्यते सतः।'३७ आचार्य हरिभद्र सूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय' में सत् के विषय में अन्य दर्शनकार के मत को इस प्रकार प्रस्तुत किया है नासतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।८ खरविषाण आदि असत् पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि उत्पत्ति होने पर उसके असत्त्व का व्याघात हो जायेगा। पृथ्वी आदि सत् पदार्थों का अभाव नहीं होता, क्योंकि उनका अभाव होने पर शशश्रृंग के समान उनका भी असत्त्व हो जायेगा। परमार्थदर्शी विद्वानों ने असत् और सत् के विषय में यह नियम निर्धारित किया है कि जो वस्तु जहाँ उत्पन्न होती है वहाँ वह पहले भी किसी न किसी रुप में सत् होती है, और जो वस्तु जहाँ सत् होती है वहाँ वह किसी रुप में सदैव सत् ही रहती है / वहाँ एकान्तः उसका नाश यानी अभाव नहीं होता। सत् का सम्पूर्ण नाश एवं असत् की उत्पत्ति का धर्मसंग्रहणी टीका में मल्लिसेनसूरि ने भी चर्चा की है।३९ चूंकि सत् का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता यह एक निरपवाद लक्षण है। सत् का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य निश्चित हो जाने पर भी एक संदेह अवश्य रह जाता है कि सत् नित्य | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII VA द्वितीय अध्याय | 901