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________________ इन सभी के सामने जैनमत स्याद्वाद को लेकर खड़ा हो जाता है इस मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्य भी है अनित्य भी है द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है द्वैत को स्वीकारते है अद्वैत का भी तिरस्कार नहीं करते है। अपने पराक्रम से सर्वज्ञता का शुद्ध स्वरूप को प्राप्त किया हुआ आत्मा ही भगवान् है, जो जगत्कर्ता नहीं है लेकिन जगत्दृष्टा और मोक्षमार्गोपदेष्टा है। जैनदर्शन सभी दृष्टिकोणों को निष्पक्ष भाव से स्वीकारने के कारण स्याद्वाद शैली के बिरूद से अलंकृत शुद्ध अनात्मवादी होने से नास्तिक दर्शन मन, शरीर, इन्द्रिय को शान्ति हो वैसा कार्य करना ही धर्म है "ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् भस्मीभूतस्यदेहस्य पुनरागमनं कुतः। यह सिद्धान्त इनका है। अध्यात्मवादी दर्शन अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण आदि अंश में एकमत ही है लेकिन धर्म का स्वरूप, फल, मोक्ष, निर्वाण, परममुक्ति आत्मा के स्वरूप विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएँ है जिसको समझने में भी कठिनाई होती है, लेकिन जैनसिद्धान्त स्याद्वादवाला होने से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को दृष्टि में रखकर प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण करता है जिससे प्रत्येक पदार्थ सहज रूप में समझ में आ जाता है। कष, छेद, ताप, ताडन रूप चार परिक्षा में जिनभाषित धर्म सुवर्ण के समान अणिशुद्ध उत्तीर्ण है ये सभी विचारणाएँ धर्म संग्रहणी में प्रतिपादित की गयी है ग्रन्थकार ने मूलग्रन्थ में तथा टीकाकार ने टीका में इसका वैशिष्ट्य निरूपित किया है। धर्म-संग्रहणी ग्रन्थ में सबसे प्रथम धर्म की व्युत्पत्ति करके आत्मकल्याण का मार्ग लक्ष्य में रखा है "धृ' धातु धारण करने अर्थ में धर्म के दो अर्थ बताये है-जो दुर्गति गमन से रोके २.तथा मोक्ष मार्ग में स्थिर रखे वह धर्म धारेइ दुग्गतीए पडतमप्पाणगं जतो तेणं। धम्मोत्ति सिवगइतीइ व सततं धारणासमक्खाओ॥१४ योगशास्त्र में आ. हेमचन्द्राचार्य ने भी कहा है - दुर्गतिप्रपतत्प्राणि धारणाद् धर्म उच्यते।९५ दुर्गति में गिरते प्राणी को धारण करके रखता है वह धर्म है। धर्म के दो स्वरूप है पुण्यकर्मरूप और आत्मस्वरूप आत्मधर्म इस धर्म शब्द पर अनेक ग्रन्थों में अनेक प्रकार से विचारणाएँ है। धर्म बिन्दु जैसे ग्रन्थों में योगशास्त्र में न्यायसम्पन्न वैभव आदि मार्गानुसारी गुणों को सामान्य धर्म तथा साधु-श्रावक के व्रतो को विशेष धर्म रूप में बताये है। धर्म अर्थात् गति सहायक द्रव्य यह धर्मास्तिकाय अर्थ में है। जीव आदि द्रव्य के स्वभाव, स्वरूप, गुण पर्याय, शक्ति आदि में भी धर्मशब्द उपयुक्त है। जिस प्रकार धूम का उर्ध्वगमन धर्म (स्वभाव) है, अमूर्तता [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII VA प्रथम अध्याय 52
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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