SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार यह ग्रन्थ अत्यंत उपादेय बन गया है। 2. धर्मसंग्रहणी :- “धर्म-संग्रहणी' ग्रन्थ में आचार्यश्री हरिभद्र धर्म-हितैषी होकर अपने सैद्धान्तिक * समुत्कर्ष को समुल्लिखित करने में सक्षम बने है। ये एक श्रुतज्ञानी होने के साथ-साथ महान् दार्शनिक भी थे। उन्होंने अनेक विद्वानों के साथ वाद-विवाद करके सत्य तत्त्व को जगत के समक्ष संप्रस्तुत किया है। बौद्धों के साथ भी इनका वाद-विवाद कम नहीं हुआ है। अनेक बौद्धों को अपने समर्थ तर्कों के द्वारा परास्त किये है। विशेषत: मानव जीवन के दार्शनिक दृष्टिकोण में आत्मा, शरीर, परलोक, पुण्य-पाप, देव-नारक, बन्धन-मुक्ति आदि को लेकर आस्तिक-नास्तिक दार्शनिकों में वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन होता रहता है लेकिन इन सभी चर्चाओं को प्रत्येक प्राणी समझ नहीं पाता है नारकीय जीवन दु:खों से त्रस्त होने से, तिर्यंच जीव सुनने पर भी विवेकशून्य, विचारशून्य होने से, देवता भोग-विलासों में मग्न होने से, सुनने पर भी आचार शून्य होते है लेकिन मनुष्य के पास ही ऐसी विचारशक्ति की प्रबलता होती है कि वह शङ्का कर सकता है, तर्क, वाद-विवाद कर और विवेकमय दृष्टि से परीक्षा कर सकता है और परमार्थ का निर्णय करके जीवन में अपना सकता है। ___ इस विश्व के प्राङ्गण में पाश्चात्य संस्कृति को लेकर भौतिकवादी विद्वान् चिन्तन-मनन के आधार पर विज्ञान के क्षेत्र में अनेक आविष्कार जगत के सामने प्रस्तुत कर रहे है। ___भारतदेश पूर्व से ही अध्यात्मवादी रहा है अत: यहाँ अनेक दार्शनिकों, आध्यात्मयोगीयों का अवतरण होता रहा है। इसी वजह से अध्यात्म क्षेत्र में अनेक प्रकार की विचार-धारणाएँ विस्तृत बनती गई, जैसे-आत्मा का अस्तित्व, उसके शाश्वत सुख, आलोक-परलोक सुख के कारणभूत साधनाविधि, आचार अनुष्ठान बन्धनमुक्ति, पाप-पुण्य आदि के विषयों में अनेक विचारकोंने अपने-अपने मन्तव्य प्रगट किये है और आज विश्व में, समाज में अनेक सम्प्रदाय शाखा प्रशाखाएँ विद्यमान हैं। ___ अनेक ऋद्धि समृद्धि से भरपूर भारतदेश विचारकों, दार्शनिकों, तत्त्वचिंतको, महापुरुषों की समृद्धि से भी भरपूर है जैन, बौद्ध, वैदिक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मुख्यता से अध्यात्मवादी तथा चार्वाक नास्तिक दर्शन की उत्पत्ति का मुख्य स्थान भी यही है। - प्रत्येक दर्शनों की विचारधाराओं में यद्यपि स्पष्ट अंतर दिखता है, तो भी मुख्य रूप से दो विभाग पड़ते है, अनेकान्त स्याद्वाद की शिला पर चलनेवाला जैन दर्शन तथा एकान्त को लेकर चलने वाले अन्यदर्शन। एकान्त दर्शन भी कोई नित्य को स्वीकारता है तो दूसरा अनित्य का समादर करता है कोई द्रव्य और पर्याय एकान्त भेदस्वरूप है तो दूसरे एकान्त अभेद। एक की दृष्टि में पूरा जगत सामान्य है तो दूसरे की दृष्टि में जगत विशेष ही है, सामान्य का नाममात्र भी नहीं है एक ईश्वर को मानने में पूर्ण रूप से निषेध करता है जबकि दूसरा कहता है ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, साथ में यह भी मानकर चलते है कि इसके बिना आत्मोद्धार नहीं है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII / प्रथम अध्याय | 51 |
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy