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________________ आत्मसिद्धे परं शोकाल्लोकाः लोकायताननम् / समालोकामहे म्लानं, तत्र नो कारणं वयम् // 92 अनात्मवादी चार्वाक् आत्मसिद्धि में तत्पर होने पर मुख म्लान कर बैठ जाते है तो म्लानता का कारण अप्रमाणिक अनात्मवाद है दुराग्रहपूर्ण निष्ठा ही इसका कारण है इसमें हम आत्मवादी कारण नहीं हो सकते / इस प्रकार अन्यान्य दार्शनिकों के मन्तव्यों का महत्त्वपूर्ण चित्रण देते हुए शास्त्रवार्ताओं का विशदीकरण करने में बहुत बड़ा उपयोग रखा है। आचार्य हरिभद्र सूरि की समत्व-दृष्टि शब्दों के अनेक अर्थों में ही परिसमाप्त नहीं होती, लेकिन उनका कथन एक श्रेष्ठ आलम्बन रूप होता है स्वयं जिन्होंने सांख्यमत के प्रकृति का प्रतिवाद किया उसी सांख्य मत के प्रथम दृष्टा के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध बहुमान्य महर्षि कपिल को उद्देश करके जो कुछ कहा है वह एक विशिष्ट कोटि के समत्व का परिणाम है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा कि मेरी दृष्टि से प्रकृतिवाद भी सत्य है क्योंकि उसके प्रणेता सामान्य पुरुष न होकर दिव्य लोकोत्तर महामुनि कपिल है अन्यदर्शनकारों के खण्डन-मण्डन के क्षेत्र में किसी विद्वान्ने अपने प्रतिपक्षी को इतने सम्मान वाचक शब्दोंसे निर्देश यदि किया हो तो वह एकमात्र आचार्य हरिभद्र सूरि ही है। एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि / कपिलोक्ततत्त्वतश्चैव, दिव्यो हि स महामुनिः // 93 आचार्य हरिभद्र सूरि ने भूतवादी चार्वाक् की समीक्षा करके उसके भूत-स्वभाववाद का निरसन किया है और परलोक एवं सुख दुख के वैषम्य का स्पष्टीकरण करने के लिए कर्मवाद की स्थापना की है इसी चित्तशक्ति या चित्त वासना को कर्म मानने वाले मीमांसक और बौद्ध मत का निराकरण करके जैन दृष्टि से कर्म का स्वरूप क्या है यह सूचित किया। यह ग्रन्थ 700 श्लोक प्रमाण संस्कृत में है और इसके ऊपर “दिक्प्रदा” नामकी टीका है। इसी ग्रन्थ पर न्याय विशारद उपाध्याय यशोविजयजी जो जैन सम्प्रदाय के “लघु हरिभद्र' कहे जाते है उन्होंने नव्यन्याय की शैली में इस ग्रन्थ पर “स्याद्वाद कल्पलता" नाम की एक पाण्डित्य पूर्ण विस्तृत व्याख्या ग्रन्थ लिखकर ग्रन्थ के अन्तर्निहित रहस्य को उद्घाटित किया है। सैकडों प्रसंगो पर कारिका के सूक्ष्म संकेतो को पाकर उसके आधार पर पूर्वपक्ष को उठाकर अत्यंत प्रौढ़ रूप से विचार व्यक्त किये, जिससे सहसा यह धारणा हो जाती है कि आचार्यश्री ने छोटे से छन्द की कारिका में इतना विस्तृत और गरिष्ठ ज्ञानराशि संचित करके "गागर में सागर” भरने जैसा कार्य किया है। इस महान् ग्रन्थ का हिन्दी विवेचन करने का महा भगीरथ कार्य आचार्यश्री “बदरीनाथ शुक्ल'' (न्यायवेदान्ताचार्य एम.ए) ने किया है जिन्होंने इस ग्रन्थ को ग्यारह स्तबकों में विभाजित कर विद्वद्वर्ग के सामने एक अमूल्य भेट समर्पित की है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIII VA प्रथम अध्याय | 50 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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