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________________ आकाश (स्वरूप) धर्म है। क्षमादि आत्मा के धर्म (गुण) है, कुण्डल आदि सोने के धर्म (पर्याय) है। जलना यह अग्नि का धर्म (शक्ति) है। इत्यादि ये सभी अर्थवाले धर्म का द्रव्य के साथ सम्बन्ध के विषय में एकान्तवादी परस्पर वाद-विवाद करते है जबकि सत्य-स्वरूप जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्त बताता है इस विषय पर भी विविध स्थानों पर रसप्रद चर्चाएँ मूलकार श्री एवं टीकाकार श्रीने उपस्थित की है जो अत्यंत आवश्यक है। आचार्यश्री ने इसमें जो कुछ लिखा उनमें आगम सिद्धान्तों का सन्निकर्ष समुपलब्ध हुआ है। कहीं कहीं पर तो अपनी अनुभव सिद्धता आगम परिपाटी में परिणत रखते हुए प्रज्ञा प्रकर्ष को प्रोत्साहन दिया है। .. नाणस्स णाणिणं णाणसाहगाणं च भक्तिबहुमाणा आसेवनवुड्डादी अहिगमगुणमो मुणेयव्वा // 96 ज्ञान - ज्ञानी आचार्यादि और ज्ञान के साधन पुस्तक, स्लेट, पेन आदि के प्रति भक्तिपूर्वक आंतरिक प्रीति विशेष बहुमान भाव होने चाहिए, उस बहुमान भाव से होती हुई आसेवन वृद्धि आदि प्रवृत्ति ही ज्ञान अधिगम के कारणभूत गुणों को जानना चाहिए, यहाँ आसेवन वृद्धि आदि में आदि शब्द से पढ़ाने वाले अध्यापक के भोजन पानी आदि की व्यवस्था में सहायक होना, आगम और संघ उपर वात्सल्य भाव रखना, बार-बार ज्ञान के उपयोग में रहना ये आदि शब्द से लेना। ज्ञान को उपलब्ध करने में आत्मा को भक्तिमान् बनाने का आचार्यश्री निर्देश दे रहे है। भक्तियुक्त आत्मा ज्ञान गुण की उपलब्धि में अग्रसर रह सकती है। भक्ति बहुमान पूर्वक ज्ञान का आसेवन करने वाले ज्ञान वृद्धों से ज्ञान का लाभ उठा सकते है क्योंकि ज्ञान अधिगम गुणयुक्त आत्मा शुभ परिणामवाला बना हुआ भव्य सत्त्वभाव से अनन्त आवरणों को क्षपित कर सकता है उसे आचार्य भी एक दृष्टांत से समझाते है... पवणदरवियलिएहिं घणघण चंदिमव्वतओ। चंदस्स पसरइ भिसं जीवस्स तहाविहं नाणं // 17 जब तीव्र पवन के सम्पर्क से बादलों का घनघोर जाल हट जाता है तब चन्द्रमा की चाँदनी का प्रसारण * होता है, इसी प्रकार ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर जीव के क्षयानुरूप ज्ञान अत्यंत प्रगट होता है और वह ज्ञानवान् बन सकता, क्योंकि जब तक ज्ञाततत्त्ववान् नहीं होता जीव तब तक संवेगवान् नहीं बन सकता, अतः ज्ञान और संवेग के बल के बिना पर परलोक प्रीति इहलोक निवृत्ति जीव में उदित नहीं होती और साथ-साथ अशठभाव, भाषाशल्य रहित जीव निर्मल नहीं बनता, चरित्र धर्म पर धैर्यवान् रहकर अपने आप में संतुष्ट नहीं रहता अत: संतोष और संवेग ज्ञान के माध्यम से ही सर्वश्रेष्ठ स्वहितैषी बन सकते हैं, क्योंकि ज्ञान स्वभाव सिद्ध है और जीव में रहा हुआ है, परलोक साधक का सहयोगी भी है, इसलिए ज्ञान-अज्ञान के विवेक को उपाय पूर्वक निरवद्य बनाते रहो ऐसा धर्मसंग्रहणी में आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है। तम्हा नाणी जीवो तं पि य परलोगसाहगं सिद्धं / नाणण्णाण विवेगे इवायमो चेव निरवज्जो // 18 | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIA प्रथम अध्याय | 53 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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