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________________ 35 हैं। तप से ही ब्रह्म को खोजा जाता है। तप से ही मृत्यु पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है। जो कुछ भी दुर्लभ और दुष्कर है, वह सभी तप से साध्य है। तप की शक्ति दुरतिक्रम है / तप का लक्ष्य आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि है। तप से ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है। तप से ही ब्रह्म को जानो ! यह आत्मा तप और सत्य के द्वारा ही जाना जा सकता है। महर्षि पतंजलि के शब्दों में कहा जाए तो तप से अशुद्धि का क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है। जिस प्रकार जैन साधना पद्धति से बाह्य और आभ्यन्तर-ये दो तप के प्रकार बताये हैं, वैसे ही गीता में भी तप का वर्गीकरण किया गया है। स्वरूप की दृष्टि से तप के 1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप और 3. मानसिक तप-ये भेद प्रतिपादित किये हैं। शारीरिक तप से तात्पर्य है-देव, द्विज, गुरुजन और ज्ञानी जनों का सत्कार करना / शरीर को आचरण से पवित्र बनाना, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करना, यह शारीरिक तप है। वाचकि तप है-क्रोध का अभाव, प्रिय, हितकारी और यथार्थ संभाषण, स्वाध्याय और अध्ययन आदि / मानसिक तप वह है, जिसमें मन की प्रसन्नता, शांतता, मौन और मनोनिग्रह से भाव की शुद्धि हो। - जो तप श्रद्धापूर्वक, फल की आकांक्षा रहित होकर किया जाता है, वही सात्त्विक तप कहलाता है। जो तप सत्कार, मान, प्रतिष्ठा के लिए अथवा प्रदर्शन के लिए किया जाता है, वह राजस तप है। जो तप अज्ञानतापूर्वक अपने आपको भी कष्ट देता है और दूसरों को भी दुःखी करता है, वह तामस तप है। प्रस्तुत आगम में तप का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें और गीता के वर्गीकरण में यही मुख्य अन्तर है कि गीताकार ने अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय-निग्रह, आर्जव, प्रभृति को तप के अन्तर्गत माना है, जबकि जैन दृष्टि से वे महाव्रत और श्रमणधर्म के अन्तर्गत आते हैं। गीता में जैनधर्म-मान्य बाह्य तपों पर चिन्तन नहीं हुआ है और आभ्यन्तर तप में से केवल स्वाध्याय को तप की कोटि में रखा है। ध्यान और कायोत्सर्ग को योग साधना के अन्तर्गत लिया है / वैयावृत्य, विनय आदि को गुण माना है और प्रायश्चित्त का वर्णन शरणागति के रूप में हुआ है।११ महानारायणोपनिषद् में अनशन तप का महत्त्व यहाँ तक प्रतिपादित किया गया है कि अनशन तप से बढ़कर कोई तप नहीं है,१२ जबकि गीताकार ने अवमोदर्य तप को अनशन से भी अधिक श्रेष्ठ माना है। उसका यह स्पष्ट अभिमत है-योग अधिक भोजन करनेवालों के लिए सम्भव नहीं है और न निराहार रहनेवालों के लिए सम्भव है किन्तु जो युक्त आहारविहार करता है, उसी के लिए योग-साधन सरल है।३ 1. ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्याजायत / -ऋग्वेद 10, 190, 1. 2. तपसा चीयते ब्रह्म / -मुण्डक-१, 1, 8 3. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत / -वेद 4. यद् दुस्तरं यदुरापं दुर्गं यच्च दुष्करम् / सर्वं तु तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमम् // -मनुस्मृति-११/२३७५. तपसा चीयते ब्रह्म। - मुण्डकोपनिषद्-१. 1. 8. 6. तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व / -तैत्तरीयोपनिषद्-३. 2. 3. 4 7. सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डक-३. 1.58. कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः। -43 साधनपाद-योगसूत्र 9. गीता-अध्याय-१७, श्लो. 14, 15, 16. 10. गीता-अध्याय-१, श्लो. 17, 18, 19. 11. भारतीय संस्कृति में तप साधना, ले डॉ. सागरमल जैन 12. तपः नानशनात्परम्। -महानारायणोपनिषद् 21, .2.13. गीता, 7, श्लो. 16-17.
SR No.004431
Book TitleUvavai Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size7 MB
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