________________ 34 तो दमन का प्रश्न ही कहाँ ? और फिर उससे उत्पन्न होनेवाली हानि को अवकाश कहाँ है ? फ्रायड विशुद्ध भौतिकवादी या देहमनोवादी थे। वे मानव को मूल प्रवृत्तियों और संवेगों का केवल पुतला मानते थे। उनके मन और मस्तिष्क में आध्यात्मिक उच्च स्वरूप की कल्पना नहीं थी, अतः वे यह स्वीकार नहीं कर सकते थे कि इच्छायें कभी समाप्त भी हो सकती हैं / उनका यह अभिमत था-मानव सागर में प्रतिपल प्रतिक्षण इच्छायें समुत्पन्न होती हैं और उन इच्छाओं की तृप्ति आवश्यक है / पर भारतीय तत्त्वचिन्तकों ने यह उद्घोषणा की कि इच्छायें आत्मा का स्वरूप नहीं, विकृति स्वरूप हैं / वह मोहजनित हैं। इसलिए विराग से उन्हें नष्ट करना-निर्मूल बना देना सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिए हितकर है। ऐसा करने से ही सच्ची-स्वाभाविक शांति उत्पन्न हो सकती है। जैन आचारशास्त्र में दमन का भी यत्र-तत्र विधान हुआ है। "देहदुक्खं महाफलं" के स्वर झकृत हुए हैं / संयम, संवर और निर्जरा का विधान है। वहाँ 'शम' और 'दम' दोनों आये हैं / शम का सम्बन्ध विषयविराग से है और दम का सम्बन्ध इन्द्रिय-निग्रह से है। दूसरे शब्दों में शम और दम के स्थान पर मनोविजय और इन्द्रिय-विजय अथवा कषाय-विजय और इन्द्रिय-विजय शब्द भी व्यवहृत हुए हैं / स्वामीकुमारने कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में "मण-इंदियाण विजई" और "इंदिय-कसायविजई" शब्दों का प्रयोग किया है। जिसका अर्थ है, मनोविजय और इन्द्रियनिग्रह अथवा 'कषायविजय' और 'इन्द्रियनिग्रह' निर्जरा के लिए आवश्यक है / दमन का विधान इन्द्रियों के लिए है और मनोगत विषय-वासना के लिए शम और विरक्ति पर बल दिया है। जब मन विषय-विरक्त हो जायेगा तो इच्छाएं स्वतः समाप्त हो जायेंगी। विषय के प्रति जो अनुरक्ति है, वह ज्ञानसे नष्ट होती है और इन्द्रियाँ, जो स्नायविक हैं, उन्हें अभ्यास से बदलना चाहिए। यदि वे विकारों में प्रवृत्त होती हों तो वैराग्यभावना से उनका निरोध करना चाहिए ! दमन शब्द खतरनाक नहीं है / व्यसनजन्य इच्छाओं से मुक्ति पाने के लिए इन्द्रिय-दमन आवश्यक है। इन्द्रियदमन का अर्थ इन्द्रियों को नष्ट करना नहीं अपितु दृढ़ संकल्प से इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को रोकना है। यह आत्मपरिणाम दृढ़ संकल्प रूप होता है / व्यसनजन्य इच्छाओं का दमन हानिकारक नहीं किन्तु स्वस्थता के लिए आवश्यक है / इच्छायें प्राकृतिक नहीं, अप्राकृतिक हैं / यह दमन प्रकृतिविरुद्ध नहीं किन्त प्रकतिसंगत है। इन्द्रियों की खतरनाक प्रवत्ति को रोकना इन्द्रियानशासन है और यह जैन दष्टि से तप का सही उद्देश्य है / इसीलिए जैन दृष्टि से आगम-साहित्य में बाह्य और आभ्यन्तर तप का उल्लेख किया है / आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप कभी-कभी ताप बन जाता है / जैनदर्शन के तप की यह अपूर्व विशेषता प्रस्तुत आगम में विस्तार के साथ प्रतिपादित की गई है। वैदिक साधना पद्धति के सम्बन्ध में यदि हम चिन्तन करें तो यह स्पष्ट होगा, वह प्रारम्भ में तपप्रधान नहीं थी। श्रमण संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित होकर उसमें भी तप के स्वर मुखरित हुए और वैदिक ऋषियों की हत्तंत्रियाँ झंकृत हुई / तप से ही वेद उत्पन्न हुए हैं। तप से ही ऋत और सत्य समुत्पन्न हुए 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-गाथा, 112-114. 2. तथैव वेदानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे / -मनुस्मृति 11, 143.