________________ 32 भगवान् महावीर अपने शिष्य-समुदाय के साथ चम्पानगरी में पधारते हैं। उनके तेजस्वी शिष्य कितने ही आरक्षक-दल के अधिकारी थे तो कितने ही राजा के मंत्री-मण्डल के सदस्य थे, कितने ही राजा के परामर्श-मण्डल के सदस्य थे। सैनिक थे, सेनापति थे। यह वर्णन यह सिद्ध करता है कि बुभुक्षु नहीं किन्तु मुमुक्षु श्रमण बनता है / जिस साधक में जितनी अधिक वैराग्य-भावना सुदृढ़ होती है, वह उतना ही साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। "नारि मुई घर सम्पति नासी, मूंड मुंडाय भये संन्यासी" यह कथन प्रस्तुत आगम को पढ़ने से खण्डित होता है। भ. महावीर के शासन में ऐरे-गेरे व्यक्तियों की भीड़ नहीं थी पर ऐसे तेजस्वी और वर्चस्वी व्यक्तियों का साम्राज्य था. जो स्वयं साधना के सच्चे पथिक थे। वे ज्ञानी भी थे, ध्यानी भी थे, लब्धिधारी भी थे और विविध शक्तियों के धनी भी थे। ___ भगवान् महावीर के चिताकर्षक व्यक्तित्व को विविध उपमाओं से मण्डित कर हूबहू शब्द चित्र उपस्थित किया है, विराट् कृतित्व के धनी का व्यक्तित्व यदि अद्भुत नहीं है, तो जन-मानस पर उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता / यही कारण है कि विश्व के सभी चिन्तकों ने अपने महापुरुष को सामान्य व्यक्तियों से पृथक्प में विशिष्टरूप से चित्रित किया है। तीर्थकर विश्व में सबसे महान् अनुपम शारीरिक-वैभव से विभूषित होते हैं / उनके शरीर में एक हजार आठ प्रशस्त लक्षण बताये गए हैं / डा. विमलचरण लो ने लिखा है-बौद्ध साहित्य बुद्ध के शरीरगत लक्षणों की संख्या बाईस बताते हैं, वहाँ औपपातिक सूत्र में महावीर के शरीरगत लक्षणों की संख्या आठ हजार बताई है। डॉ. विमलचरण लो को यहाँ पर संख्या के सम्बन्ध में भ्रान्ति हुई है। प्रस्तुत आगम में "अट्ठसहस्स" यह पाठ है और टीकाकार ने 'अष्टोत्तर सहस्रम्' लिखा है। जिसका अर्थ एक हजार आठ है। तीर्थंकर जैन दृष्टि से एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी होते हैं, सामान्य व्यक्ति में एकाध शुभ लक्षण होता है। उससे बढ़कर व्यक्ति में बत्तीस लक्षण पाये जाते हैं। उससे भी उत्तम व्यक्ति में एकसौ आठ लक्षण होते हैं / लौकिक सम्पदा के उत्कृष्ट धनी चक्रवर्ती में एक हजार आठ लक्षण होते हैं पर वे कुछ अस्पष्ट होते हैं, जबकि तीर्थंकर में वे पूर्ण स्पष्ट होते हैं। लो ने बुद्ध के बाईस लक्षण कैसे कहे हैं ? यह चिन्तनीय है। तपः एक विश्लेषण औपपातिक में श्रमणों के तप का सजीव चित्रण हुआ है / तप साधना का ओज है, तेज है और शक्ति है। तप:शून्य साधना निष्प्राण है। साधना का भव्य प्रासाद तप की सुदृढ़ नींव पर आधारित है। साधनाप्रणाली, चाहे वह पूर्व में विकसित हुई हो अथवा पश्चिम में फली और फूली हो, उसके अन्तस्तल में तप किसी न किसी रूप में रहा हुआ है। तप में त्याग की भावना प्रमुख होती है और उसी से प्रेरित होकर साधक प्रयास करता है। भारतीय सांस्कृतिक जीवन का हम अध्ययन करें तो यह सूर्य के प्रकाश की भाति स्पष्ट हुए बिना नहीं रहेगा कि चाहे भगवान् महावीर की अध्यात्मवादी विचारधारा रही हो या भौतिकवादी अजितकेसकम्बलि या नियतिवादी गोशालक की विचारधारा रही हो, सभी में तप के स्वर झंकृत हुए हैं 1. औपपातिकसूत्र, पृ. 12 अट्ठसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे / 2. Some Jaina Canonical Sutras, P. 73.