________________ 190 श्री औपपातिकसूत्रम् मिच्छादंसणसल्लाओ पडिविरया, सव्वाओ आरंभ-समारंभारंभाओ पडिविरया, सव्वाओ करण-कारावणातो पडिविरया, सव्वाओ पयणपयावणातो पडिविरया / सव्वाशे कोट्टण-पिट्टण-तज्जण-तालण-वह बंधपरिकिलेसाओ पडिविरया, सव्वातो पहाणमद्दण-वण्णक-विलेवण-सद्दफरिस-रस-रूव-गंध-मल्लालंकारातो पडिविरया, जे यावण्णे तहप्पकारा सावज्जजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जंति ततो वि पडिविरया जावज्जीवाए // 163 // 164 - से जधाणामए अणगारा भवंति इरियासमिया, भासासमिता 'जाव इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति॥ 164 // [164] 'से जहानामए'त्ति क्वचित्तत्राप्ययमेवार्थः 20 / / 164 // 165 - तेसि णं भगवंताणं एतेणं विहारेणं विहरमाणाणं अत्थेगइयाणं अणंते जाव केवलवरणाण-दंसणे समुप्पज्जति। ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति, पउणित्ता, भत्तं पच्चक्खंति पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति छेदेत्ता जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे जाव अंतं करेंति // 165 // ____ 166 - जेसि पि य णं एगइयाणं णो केवलवरणाण-दंसणे समुप्पज्जड़। ते बहूई वासाइं छउमत्थपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहे उप्पन्ने वा अणुप्पन्ने वा भत्तं पच्चक्खंति, ते बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे जाव तमट्ठमाराहेत्ता चरिमेहिं उस्सास-नीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुन्नं केवलवरनाणदंसणं उप्पाडिति, उप्पाडेत्ता ततो पच्छा सिझंति जाव दुक्खाण अंतं करेंति // 166 // [166] ''आबाहे'त्ति रोगादिबाधायाम् // 166 / / 1. द्र. भगवतीसूत्र. 2/1 / / 2. द्र. सू. 153 / / 3. द्र. सू. 154 / / 4. द्र. सू. 154 / / 5. द्र. सू. 154 // 6. JB | आबा० मु.॥