________________ प्रति जो शुभभाव हैं, वह शुभभाव सम्यग्दर्शन का हेतु बनते हैं। अतः जिन-मंदिर के निर्माण में कम से कम दोष लगे, ऐसी सावधानी रखनी चाहिए। इस सम्बंध में हरिभद्र ने पांच द्वारों का निर्देश किया है 1. भूमिशुद्धिद्वार - भूमिशुद्धि दो प्रकार से होती है- द्रव्य और भाव। किसी भूमि या क्षेत्र का सदाचारी लोगों के रहने लायक होना तथा काटे, हड्डियां आदि से रहित होना द्रव्यशुद्धि है और वहां जिनभवन बनवाने में दूसरे लोगों को कोई आपत्ति न होना यह भावशुद्धि है। अयोग्य क्षेत्र में जिनमंदिर-निर्माण से जिनमंदिर की न तो वृद्धि होती है और न ही वहां साधु आते हैं। यदि कभी आते भी हैं, तो उनके आचार का नाश होता है, फ लतः जिनशासन की निंदा होती है। अतः सदैव योग्य क्षेत्र में ही जिन-मंदिर बनवाना चाहिए। 2. दलविशुद्धिद्वार - दल सामग्री को कहते हैं। जिनमंदिर-निर्माण के लिए काष्ठ, पत्थर आदि का शुद्ध होना भी आवश्यक है। काष्ठादि खरीदते समय होने वाले शकुन और अपशकुन सामग्री की शुद्धि-अशुद्धि जानने के उपाय हैं। 3. भूतकानतिसन्धानद्वार - जिनमंदिर-निर्माण सम्बंधी कोई भी कार्य कराते समय मजदूरों का शोषण नहीं करना चाहिए। अधिक मजदूरी देने से वे प्रसन्न होकर अधिक कार्य करते हैं। इससे जिनशासन की प्रशंसा होती है, फलतः कुछ लोग जिनशासन के प्रति आकर्षित होकर बोधिबीज अर्थात् सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार जिनशासन की प्रभावना होती है। - 4. स्वाशयवृद्धिद्वार- जिनभवन-निर्माण के समय जिनेंद्रदेव के गुणों का यथार्थ ज्ञान एवं जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के लिए की गई प्रवृत्ति से होने वाला शुभ परिणाम स्वाशयवृद्धि है। . 5. यतनाद्वार- जिनभवन के निर्माण हेतु लकड़ी लाना, भूमि खोदना कार्यों में जीव-हिंसा न हो या कम से कम हो, इसके लिए सावधानी रखनी चाहिए, क्योंकि जीवरक्षा ही धर्म का सार है। यतमा धर्म के पालन के लिए आवश्यक है, क्योंकि भगवान् ने यतना में ही धर्म बताया है। यतना प्रवृत्तिरूप होने पर भी निवृत्तिमार्ग की साधक है, क्योंकि यतना से आरम्भादिक हिंसा अल्पतम होती है और इससे अनेक दोष दूर हो जाते हैं, इसी कारण यह यतना परमार्थ से निवृत्तिप्रधान ही है। * इस प्रकार भूमि-शुद्धि आदि में विधिपूर्वक सावधानी रखने वाले व्यक्ति की