SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसादि महाव्रतों का पूर्णतः पालन करते हैं, द्रव्यपूजा रूप साक्षात् द्रव्यस्तव का विधान नहीं है, क्योंकि मुनियों में भाव को ही प्रधानता मानी गई है। इसलिए मुनियों के लिए भाव से ही पूजा करना उपयुक्त है, क्योंकि पुष्प, दीप, धूप आदि द्रव्यस्तव हैं और इसमें आरम्भ (हिंसा) होने से साधुओं के लिए इनका निषेध किया गया है। लेकिन वे दूसरों से ऐसा द्रव्यस्तव करवा सकते हैं। तात्पर्य यह कि साधुओं को पुष्पादि से स्वयं पूजा करने का निषेध है, किंतु दूसरों से करवाने का निषेध नहीं है। सही मायने में देखा जाए, तो जिस प्रकार साधु का भावस्तव द्रव्यस्तव से युक्त है, उसी प्रकार योग्य गृहस्थ का द्रव्यस्तव भी भावस्तव से युक्त है, ऐसा जिनवचन है। कोई भी द्रव्यस्तव भगवान् के प्रति बहुमानरूप भाव से युक्त होता है अर्थात् द्रव्यस्तव से उत्पन्न होने वाला यह भाव ही भावस्तव बन जाता है। इस प्रकार द्रव्यस्तव को भी भाव से युक्त होने के कारण भावस्तव कहा जा सकता है। द्रव्यस्तव रूप चैत्यवंदन, स्तुति, पूजा आदि से अंशतः शुभभाव अवश्य होता है। चूंकि भगवान् महनीय गुणों से युक्त हैं, इसलिए वे द्रव्यस्तव के योग्य हैं- इसे अच्छी तरह जानकर जो जीव विधिपूर्वक द्रव्यस्तव में प्रवृत्ति करते हैं, उनकी आंशिक भावविशुद्धि अनुभवसिद्ध है, यह भावविशुद्धि जिनगुणों में अनुमोदन से होती है। इस प्रकार द्रव्यस्तव और भावस्तव पृथक् होते हुए भी अभिन्न हैं। इसलिए साधुओं और श्रावकों को द्रव्यस्तव और भावस्तव दोनों करना चाहिए। सप्तम पंचाशक हरिभद्र ने सातवें पंचाशक में 'जिनभवन-निर्माणविधि' का वर्णन किया है। जिनभवन-निर्माण के लिए निर्माता की कुछ योग्यताएं आवश्यक हैं। हरिभद्र के अनुसार जिनभवन-निर्माण कराने का अधिकारी वही व्यक्ति है जो गृहस्थ हो, शुभभाव वाला हो, जिनधर्म पर श्रद्धा रखता हो, समृद्ध हो, कुलीन हो, कंजूस न हो, धैर्यवान हो, बुद्धिमान हो, धर्मानुरागी हो, देव, गुरु और धर्म की भक्ति करने में तत्पर हो और शुश्रूषादि आठ गुणों से युक्त हो। साथ ही आगमानुसार जिनभवन के निर्माण-विधि का ज्ञाता हो। अपने तथा दूसरों के हित के लिए जिनमंदिर बनवाने वाले निर्माता में उक्त गुणों का होना आवश्यक है, क्योंकि अयोग्य व्यक्ति जिनभवन का निर्माण करवाएगा तो जिनाज्ञा का भंग होने से दोष का भागी होगा। योग्य व्यक्ति को जिनभवन का निर्माण करवाते देखकर कुछ गुणानुरागी मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं, तो दूसरे गुणानुरागरूप शुभपरिणाम से मोक्षप्राप्ति के लिए बीजस्वरूप सम्यग् दर्शन आदि को प्राप्त करते हैं। सर्वज्ञ देव द्वारा स्वीकृत जिनशासन के 24
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy