________________ सम्बंधी अनुष्ठान से मिले, तो फिर वीतराग सम्बंधी अनुष्ठान की विशेषता ही क्या रह जाएगी? यहां यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि भावस्तव का कारण नहीं बनने वाले अनुष्ठान द्रव्यस्तव हैं', यह बात मान ली जाती है, तो फिर भावस्तव का कारण बनने वाले जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठानों को भाव-स्तव क्यों नहीं माना जाता? ये अनुष्ठान भी आप्तकथित होने के कारण साधुओं की ग्लान-सेवा, स्वाध्याय आदि कार्यों के समान होते हैं और साधुओं के उपर्युक्त कार्य आगम में भावस्तव कहे जाते हैं। इसके उत्तर में हरिभद्र कहते हैं कि साधुओं के उपर्युक्त कार्यों से होने वाले शुभ अध्यवसाय की अपेक्षा जिनभवन-निर्माण आदि अनुष्ठानों से होने वाले शुभ अध्यवसाय कम होते हैं, क्योंकि उनमें आंशिक रूप से आरम्भ भी होता है। इसलिए वे द्रव्यस्तव ही हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि साधुओं का कार्य आसक्ति आदि कलुषित भावों एवं हिंसा आदि पापकर्मों से सर्वथा रहित तथा आगम में प्रणीत महाव्रतादि में प्रवृत्तिरूप होने से सर्वथा शुद्ध ही होता है। इसलिए साधु का क्रिया-व्यापार सर्वथा निर्दोष माना जाता है, जबकि परिग्रह और आरम्भ से युक्त गृहस्थों का क्रिया-व्यापार अल्पशुद्ध होता है। इसलिए वह द्रव्यस्तव ही है। द्रव्यस्तव बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रखने वाला होने के कारण कड़वी औषधि के समान दीर्घकालीन भवरोग को उपशमित करने वाला है, जबकि भावस्तव औषधि के बिना ही पथ्य मात्र से उस भवरोग को निर्मूल करने में सक्षम है। द्रव्यस्तव से पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म का बंध होता है, उसके उदय से सुगति आदि मिलती है और परम्परा से थोड़े समय के बाद भावस्तव का योग भी मिलता है। द्रव्यस्तव और भावस्तव में यह भेद होते हुए भी दोनों एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं, क्योंकि द्रव्यस्तव का अधिकारी गृहस्थ होता है और भावस्तव का साधु, किंतु गौण रूप से गृहस्थ को भी भावस्तव होता है और साधु को भी द्रव्यस्तव होता है। जिस प्रकार जिन-भवन आदि निर्माण भगवान् को अभिमत हैं, उसी प्रकार साधुओं को जिन-बिम्ब दर्शन आदि सम्बंधी द्रव्यस्तव अनुमोदनीय हैं। आगम में इसके प्रमाण उपलब्ध होते हैं। साधु के लिए भी अपनी मर्यादानुकूल द्रव्यस्तव संगत है, क्योंकि चैत्यवंदन आदि में सूत्रपाठ के उच्चारण के रूप में द्रव्यस्तव न हो तो वह निरर्थक होता है, क्योंकि आगम में सूत्रपाठ के उच्चारण के बिना वंदना नहीं कही गई है। इसलिए साधु भी स्तवन-पाठरूप द्रव्यस्तव करें, यह शास्त्रसम्मत है, किंतु मुनियों के लिए जो (93)