SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनमंदिर-निर्माण सम्बंधी प्रवृत्तियों की जीवहिंसा होने पर भी वह पापरूप नहीं होती है, अतः परमार्थ से तो वह अहिंसा ही है। इसी प्रकार जिनपूजा, जिनमहोत्सव आदि सम्बंधी प्रवृत्तियों में अल्पतम हिंसा होते हुए भी वे अधिक जीवहिंसा से निवृत्ति कराने वाली होने के कारण परमार्थ से अहिंसक ही मानी जाती हैं। अतः श्रावक को मुक्ति न मिलने तक देवगति और मनुष्यगति में अभ्युदय और कल्याण की सतत् परम्परा को बनाए रखने हेतु जिनभवन का निर्माण करवाना चाहिए, क्योंकि अन्ततः उससे मोक्ष मिलता है। .. . जिनभवन में जिनबिम्बप्रतिष्ठा के भाव से उपार्जित पुण्यानुबंधी पुण्य के फल से जीव को सदा देवलोक आदि सुगति की ही प्राप्ति होती है, अर्थात् जब तक मोक्ष न मिले तब तक वह देवलोक या मनुष्यलोक में ही उत्पन्न होता है। जिनभवन के निमित्त साधुओं का आगमन हो तो स्वाभाविक रूप से गुणानुराग होता है और नए-नए गुणों का प्रकटन होता है। जिन-भवन से दूसरे लोग भी प्रतिबोध को प्राप्त करते हैं, जो धन जिनमंदिर में लग रहा है वही मेरा है, ऐसे शुभभाव से उपार्जित शुभकर्म के विपाक से जीव स्वीकृत चारित्र का अंत तक निर्वाह करता है। मृत्युपर्यंत विधिपूर्वक संयम का पालन करना निश्चयनय से चारित्राराधना है। इसकी आराधना करने वाले जीव सात या आठ भवों से जन्म-मरणादि से युक्त होकर शाश्वत सुखवाले मोक्षपद को प्राप्त करते हैं।' अष्टम पंचाशक हरिभद्र ने आठवें पंचाशक में 'जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि' का वर्णन किया है। यह विधि दो भागों में विभक्त हे- (1) जिनबिम्ब-निर्माण की विधि तथा (2) जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि। भगवान् जिन के वीतरागता, तीर्थप्रवर्तन आदि गुणों को गुरु के द्वारा सुनने और जानने के पश्चात् व्यक्ति यह सोचता है कि भगवान् जिनेंद्रदेव अतिशय गुण सम्पन्न होते हैं, उनके बिम्ब का दर्शन करना कल्याणकारी होता है, उनके प्रति शुभभाव रखने से शुभ-कर्मों का अनुबंध होता है। अतः जिनबिम्ब बनवाना मनुष्य का कर्तव्य है और यही मनुष्य जन्म की सार्थकता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिनबिम्ब निर्माण करवाने वाले के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी निर्दोष चरित्र वाले शिल्पी से ही बिम्ब का निर्माण करवाए और उसे पर्याप्त पारिश्रमिक दें। यदि निर्दोष चरित्र वाला शिल्पी नहीं मिलता है और दूषित चरित्र वाले शिल्पकार से जिनबिम्ब का निर्माण करवाना पड़े, तो उसका पारिश्रमिक पूर्व ही निर्धारित कर देना चाहिए। उसे वह धनराशि भी अनाज आदि के रूप में दें, ताकि वह उसे पापकर्म में खर्च न कर सके। यदि ऐसा नहीं होता है तो दूषित
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy