________________ चरित्रवाला शिल्पी उस धनराशि से पापरूप प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है और फलतः अनन्त भवभ्रमण करते हुए उस निमित्त दारुण दुःख को भोगता है। इसलिए ऐसे शिल्पी को खाद्यान्न आदि के रूप में पारिश्रमिक निर्धारित किए बिना नियुक्त नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार किसी अत्यंत बीमार व्यक्ति को अपथ्य भोजन देना उचित नहीं है, उसी प्रकार भली-भांति विचारकर जो कार्य का परिणाम किसी के लिए दारुण दुःख का कारण हो, वह करणीय नहीं होता। अतः जिन-आज्ञानुसार कार्य करना सराहनीय होता है। यदि अज्ञानवश कभी भूल से आज्ञा के विपरीत कार्य हो भी जाता है तो करने वाला दोषी नहीं समझा जाता है, क्योंकि वह आज्ञा का आराधक होता है और उसका परिणाम शुद्ध होता है। आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने वाले को तीर्थंकर के प्रति बहुमान होता है और तीर्थंकर के प्रति बहुमान होने के कारण उसके परिणाम (मनोभाव) शुद्ध होते हैं। साधु या श्रावक से सम्बंधित कोई भी प्रवृत्ति यदि अपनी मति के अनुसार की जाती है, तो वह आज्ञारहित होने से संसार का निमित्त होती है। अतः मोक्षाभिलाषी को जिन की आज्ञानुसार ही प्रयत्न या पुरुषार्थ करना चाहिए। - इस प्रकार भलीभांति निर्मित जिनबिम्ब की शुभ मुहूर्त में चन्दनादि का विलेपन करके मांगलिक गीतों के बीच विधिपूर्वक स्थापना करनी चाहिए, उसके चारों ओर स्वर्णमुद्रा, रत्न तथा जल से परिपूर्ण चार कलश, जिनमें पुष्प और कच्चे धागे बंधे हों, रखकर बिम्ब के समक्ष गन्ने के टुकड़े, मिष्ठान्न, जौ, चंदन आदि का स्वस्तिक बनाकर घी, गुड़ आदि से युक्त मंगल दीप प्रज्वलित करना चाहिए। इतनी क्रिया हो जाने के पश्चात् प्रतिमा के हाथ में मांगलिक कंकन बांधकर उत्तम वस्त्र धारण कराकर अधिवासित जिनबिम्ब का चार पवित्र नारियों द्वारा प्रोंखन करना चाहिए। यह कहा जाता है कि प्रोंखन करने वाली स्त्रियों को कभी भी वैधव्य और दारिद्रय प्राप्त नहीं होता है। अधिवासन के समय चंदन, कपूर, पुष्प, नारियल आदि उत्तम द्रव्यों, वस्त्र, आभूषण आदि विधि प्रकार के उपहारों और भक्तिभावपरक उत्तम रचनाओं से जिनेंद्रदेव के वैभव को प्रकट करके जिनबिम्ब की उत्कृष्ट पूजा करनी चाहिए। उत्कृष्ट पूजा (मूलमंगल) के पश्चात् चैत्यवंदन करना चाहिए। वर्धमान-स्तुति बोलने के पश्चात् शासनदेवियों की आराधना के लिए एकाग्रचित्त होकर कायोत्सर्ग करना चाहिए, फिर मंगलोच्चारणपूर्वक जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करनी चाहिए। जिनबिम्ब की यह प्रतिष्ठा सर्य-चंद्र की प्रतिष्ठा की ही भांति शाश्वत है। प्रतिष्ठोपरांत आशीर्वाद के लिए सिद्धों की स्तुति रूप उनकी अनेक उपमाओं वाली मंगलगाथाएं बोलनी चाहिए। इन मंगलगाथाओं को बोलने से इष्ट की सिद्धि होती है। मंगलगाथाएं (97)