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________________ बोली जाएं इसे लेकर विद्वानों में मतभिन्य है। कुछ आचार्यों का कहना है कि ये मंगलगाथाएं पूर्णकलश, मंगलदीप आदि रखते समय बोली जानी चाहिए, तो कुछ आचार्यों का कथन है कि परमार्थ से जिनेंद्रदेव ही मंगलरूप हैं, इसलिए प्रत्येक कार्य करने से पूर्व भावपूर्वक जिनेंद्रदेव की स्तुतिरूप मंगलगाथाओं का पाठ करना चाहिए। जिनबिम्ब की पूजा के उपरांत संघ की पूजा करने का विधान है, क्योंकि शास्त्रों में ऐसा वर्णन आया है कि तीर्थंकर के बाद पूज्य के रूप में संघ का स्थान है। आगमों में तीर्थंकर द्वारा संघ को नमस्कार करने के उल्लेख मिलते हैं। संघपूजा में सभी पूज्यों की पूजा हो जाती है। यहां संघ का अभिप्राय साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के समूह रूप संघ से नहीं है, अपितु उनके गुण समूह रूप संघ से है। यही कारण है कि तीर्थंकर भी देशना के पहले 'नमो तित्थस्स' कहकर गुरुभाव से संघ को नमस्कार करते हैं। इस तरह बिना किसी भेदभाव के गुणों के निधानरूप संघ की पूजा करनी चाहिए। संघ-पूजा सर्व दानों में महादान है। यही गृहस्थ धर्म का सार है और यही सम्पत्ति का सदुपयोग है। संघ-पूजा का मुख्य फल तो मोक्ष ही है, किंतु उससे देव और मनुष्य शुभगतिरूप आनुषंगिक फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के पश्चात् भी स्वजनों और सहधर्मियों के प्रति उत्तम वात्सल्यभाव रखना चाहिए। प्रतिष्ठा के अवसर पर शुद्धभाव से आठ दिनों तक महोत्सव करना चाहिए, किंतु कुछ आचार्यों का कहना है कि यह महोत्सव तीन दिन तक करना चाहिए। तदुपरांत प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधि से चैत्यवंदन, स्नात्र-पूजा आदि करनी चाहिए, जिससे भव-विरह अर्थात् संसार से मुक्ति प्राप्त हो। नवम पंचाशक नवें पंचाशक में हरिभद्र ने यात्राविधि' का वर्णन किया है। यहां यात्रा से अभिप्राय मोक्षरूपी फल प्रदाता जिन की शोभायात्रा से है। जिन की शोभायात्रा वह महोत्सव है, जो जिन को उद्दिष्ट करके किया जाता है। जिन की उपासना का आधार सम्यक् दर्शन है और निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहणा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना - ये आठ आचार (भेद) बताए गए हैं। इनमें भी प्रभावना प्रधान है, क्योंकि जो निःशंकित आदि गुणों से युक्त है, वही जिनशासन की प्रभावना कर सकता है। जिनयात्रा जिनशासन की प्रभावना के निमित्त किया गया है, जो एक विशिष्ट महोत्सव है। दान, 98
SR No.004428
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Jain Granth Bhumikao ke Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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