________________ जहां तक पूजा करने में कथंचित् हिंसा की बात है, तो यह जान लेना भी आवश्यक है कि गृहस्थों के लिए जिनपूजा निर्दोष है, क्योंकि गृहस्थ कृषि आदि असदारम्भ में प्रवृत्ति करते हैं, जबकि जिनपूजा से वे उस असदारम्भ से निवृत्त होते हैं, अतः जिनपूजा निवृत्तिरूप फल है। यदि कोई यह सोचता है कि शरीर, घर, पुत्र, स्त्री आदि द्वारा जीव हिंसा में मेरी प्रवृत्ति है, इसलिए मैं जिनपूजा नहीं करूंगा, तो यह उसकी मूर्खता है। मोक्षाभिलाषी को प्रमादरहित भाव से आगमसम्मत विधि द्वारा भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिए। जिस प्रकार महासमुद्र में फेंकी गई जल की एक बूंद का भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जिनों के गुणरूपी समुद्र में पूजा अक्षय ही होती है। पूजा में पूज्य को कोई लाभ हो या न हो, लेकिन पूजक को अवश्य होता है। जिस प्रकार अग्नि आदि के सेवन से अग्नि को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजा करने से भले ही जिनेन्द्रदेव को कोई लाभ न हो, पर उनकी पूजा करने वाले को लाभ अवश्य होता है, अतः जिनेन्द्र की पूजा करनी चाहिए। पूजा करने से देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के प्रति सम्मान जगता है, जिन, गणधर, चक्रवर्ती आदि उत्तम पदों की प्राप्ति होती है और उत्कृष्ट धर्म की प्रसिद्धि होती है। पंचम पंचाशक पंचम पंचाशक में 'प्रत्याख्यानविधि' का वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यान, नियम और चारित्रधर्म समानार्थक हैं। प्रत्याख्यान का अर्थ है- 'आत्महित की दृष्टि से प्रतिकूल प्रवृत्ति के त्याग की मर्यादापूर्वक प्रतिज्ञा करना।' मूलगुण और उत्तरगुण के आधार पर इसके दो भेद होते हैं। साधु के महाव्रत और श्रावक के अणुव्रत मूलगुण प्रत्याख्यान हैं तथा पिण्ड विशुद्धि आदि गुण साधु के और दिग्विरति इत्यादि व्रत श्रावक के उत्तरगुण हैं। नवकार पोरसी, परिमुड्ड, एकासन, एकठाण, आयंबिल, अभत्त, अचित्त पानी आगार, चरिम, अभिग्रह तथा विकृति (विगय)- ये दस प्रत्याख्यान हैं, जो काल की मर्यादापूर्वक किए जाने के कारण कालिक प्रत्याख्यान कहलाते हैं। विधिपूर्वक ग्रहण, आगार, सामायिक, भेद, भोग, नियम-पालन और अनुबंध- ये सात द्वार हैं, जिनके आधार पर कालिक प्रत्याख्यान की विधि बताई गई है 1. ग्रहणद्वार - उचित गुरु के पास उचित अवसर पर विनय एवं उपयोग से गुरु द्वारा बोले गए पाठ को स्वयं बोलते हुए ग्रहण करना ग्रहणद्वार कहलाता है।